बुधवार, 23 अप्रैल 2008

शिक्षा , मलाईदार परतें और गैर आरक्षित क्रीमी लेयर


उच्च शिक्षण संस्थानों में आरक्षण लागू करने के विवाद में करीब दो साल से बैकफुट पर खड़ी कांग्रेस सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद जरूर राहत महसूस कर रही है। मगर अब क्रीमीलेयर की फांस से निकलना पार्टी और सरकार के लिए नई चुनौती है। सुप्रीमकोर्ट के फैसले के बाद उच्च शिक्षण संस्थानों में पिछड़ों को आरक्षण लागू कराने में जुटी सरकार फिलहाल क्रीमी लेयर को आरक्षण के दायरे से बाहर करने के लिए जल्द ही कानून में संशोधन करेगी। आईआईएम और आईआईटी जैसे हाईप्रोफाइल उच्च शिक्षण संस्थानों में दाखिला प्रक्रिया नजदीक होने के चलते राजनीतिक मामलों की कैबिनेट कमेटी ने आरक्षण कानून में संशोधन की मंजूरी दे दी है। अब जल्द ही इसके लिए संसद में विधेयक लाया जाएगा।
सुप्रीम कोर्ट ने पहली बार 1992 में क्रीमीलेयर शब्द का इस्तेमाल किया था। संविधान के अनुच्छेद 15-16 में क्रीमी लेयर का प्रावधान नहीं है। इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार के फैसले में क्रीमी लेयर की बात कही गई थी। इसके बाद नौकरियों में क्रीमी लेयर को लागू कर दिया गया, लेकिन शिक्षण संस्थाओं में इसको लेकर कुछ भी नहीं हुआ। क्रीमीलेयर में राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के न्यायधीशों, यूपीएससी के चेयरमैन समेत राज्य व केंद्र सरकार के ए और बी वर्ग कर्मचारी शामिल हैं। इसके साथ ही, जिनकी आय 2.5 लाख रुपये सालाना है, उन्हें भी क्रीमीलेयर में शामिल किया गया है। क्रीमीलेयर में शामिल लोगों के बच्चों को आरक्षण का लाभ नहीं मिलेगा।
किसी भी देश की सबसे बड़ी पूंजी या संसाधन वहां के लोग होते हैं। इसीलिए मानव संसाधन का सर्वागीण विकास किसी भी देश के विकास की प्रक्रिया का सबसे महत्वपूर्ण घटक माना जाता है और शिक्षा के विभिन्न औपचारिक-अनौपचारिक रूप इस प्रक्रिया का मूल आधार होते हैं। ये आधार जितने सुदृढ़, जितने परिपूर्ण और जितने समसामयिक होते हैं, व्यक्ति या मानव संसाधन का विकास भी उतना ही सर्वागीण होता है।
नॉलेज इकॉनॉमी में शिक्षा का महत्व चमत्कारिक रूप से बढ़ा है। आईटी से लेकर मैनेजमेंट और हॉस्पिटालिटी से लेकर डिजाइनिंग, एनिमेशन और ऐसे ही तमाम स्ट्रीम की अच्छी पढ़ाई करने वाले आज सबसे तेजी से अमीर बन रहे हैं। इस रेस में पिछड़े युवा तेजी से पिछड़ रहे हैं। उत्तर प्रदेश के नोएडा और हरियाणा के गुड़गांव के हरियाणा में आपको पढ़े लिखे लोगों की समृद्धि और जमीन बेचकर करोड़ों कमाने वालों की लाइफस्टाइल का फर्क साफ नजर आएगा। ऐसे भी वाकए हैं जब जमीन बेचकर लाखों रुपए कमाने वाला कोई शख्स किसी एक्जिक्यूटिव की कार चला रहा है। अगली पीढ़ी तक ये फासला और बढ़ेगा।
शिक्षा व्यवस्था समाज के मूल्य , विषमताओं व सत्ता सन्तुलन को बरकरार रखने का एक औजार है । हमारी तालीम में एक छलनी-करण की प्रक्रिया अन्तर्निहित है । लगातार छाँटते जाना । मलाई बनाते हुए, छाँटते जाना। उनको बचाए रखना जो व्यवस्था को टिकाए रखने के औजार बनने ‘लायक’ हों । इस छँटनी-छलनी वाली तालीम का स्वरूप बदले इसलिए एक नारा युवा आन्दोलन में चला था - ‘खुला दाखिला ,सस्ती शिक्षा । लोकतंत्र की यही परीक्षा’ यानि जो भी पिछली परीक्षा पास कर चुका हो और आगे भी पढ़ना चाहता हो , उसे यह मौका मिले। 1977 में यही नारा लगा कर हमारे विश्वविद्यालय में ‘खुला दाखिला’ हुआ था । इस नारे को मानने वाले उच्च शिक्षा में आरक्षण के विरोधी थे और नौकरियों में विशेष अवसर के पक्षधर । इस नारे की विफलता के कारण शिक्षा में आरक्षण की आवश्यकता आन पड़ी । सस्ती शिक्षा का अधिकार सही है लेकिन काफी नहीं है समता के सही माने बनाने की ज़रूरत प्राथमिक स्तर से है लेकिन विवाद स्नातक, स्नातकोत्तर स्तर पर है
शायद इसी के चलते विंध्याचल से दक्षिण के लगभग हर पिछड़ा नेता ने स्कूल कॉलेज से लेकर यूनिवर्सिटी खोलने में दिलचस्पी ली थी और ये सिलसिला अब भी जारी है। लेकिन उत्तर भारत के ज्यादातर पिछड़ा नेता अपने आचरण में शिक्षा विरोधी साबित हुए हैं। उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, आदि राज्यों के अच्छे शिक्षा संस्थान पिछड़ा उभार के इसी दौर में बर्बाद हो गए। इन नेताओं से नए शिक्षा संस्थान बनाने और चलाने की तो आप कल्पना भी नहीं कर सकते। शिक्षा को लेकर उत्तर भारत के पिछड़े नेताओं में एक अजीब सी वितृष्णा आपको साफ नजर आएगी।
सवाल यह है कि आरक्षित कहाँ से आता है, और क्यों है सरकार ने जिन लोगों को फायेदा दिया है उसमें कमज़ोर तबका इसका लाभ ले नही पायेगा क्यूंकि हमारे देश में गरीब बच्चा अपना समय पैसे कमाने में लगाता है शिक्षा लेने के पैसे दीजिये तो उसे पूरा परिवार चलाने के लिए प्रयोग किया जाता है। छात्रवृत्ति मिलती है जिसका हिस्सा दफ्तर के बाबू को देना पड़ता है। केवल आरक्षण मिलने भर से जो इन बड़े बड़े संस्थानों के खर्चे हैं वो कम नही होंगे और उन गरीब घरों के बच्चे जो कक्षा 10 से आगे बढ़ने के बारे में सोचते ही नही और सोचते भी हैं तो उन्हें सुविधाएं या कहें कि पैसे ही नही मिलते कि अच्छी जगह जाकर पढाई कर सकें और मोटी मोटी फीस का बोझ उठा सकें। हाँ जो लोग उठा सकते हैं उन्हें इसमें शामिल नही किया गए क्यूंकि वो इतने साधन संपन्न हैं कि उन्हें किसी आरक्षण की ज़रूरत नही है। यानी वो क्रीमीलेयर में आते हैं। अब सवाल ये उठता है कि ये आरक्षण है तो किसके लिए?
साल 2004-05 के नेशनल सैंपल सर्वे (याद रखें, ये सर्वे है जनगणना नहीं) के मुताबिक देश की आबादी में ओबीसी का हिस्सा सबसे ज्यादा 40.23%, एससी का हिस्सा 19.75%, एसटी का हिस्सा 8.61% और सवर्ण जातियों का हिस्सा 31.41% है। औसत मासिक उपभोग के आधार पर देखें तो 24.88% ओबीसी सबसे गरीब हैं, जबकि भूमि के मालिकाने के आधार पर देखें तो जहां 23.22% ओबीसी सबसे गरीबों में शुमार हैं सवर्णों में सबसे गरीबों की संख्या 13.09% है। इसी आधार पर 20.07% ओबीसी सबसे अमीर है, जबकि सवर्णों में सबसे अमीरों की संख्या 42.29% है। जाहिर है सवर्ण अमीरों का अनुपात सवर्ण ओबीसी से लगभग दोगुना है।
अगर ओबीसी की क्रीमी लेयर को 27 फीसदी आरक्षण से बाहर नहीं किया जाता तो इस तबके के 20.07% सबसे अमीर ही सारी मलाई खा जाएंगे क्योंकि इसी हिस्से में 73.69% डिप्लोमाधारक, 69.81% ग्रेजुएट और 74.01% पोस्ट-ग्रेजुएट है। ओबीसी का बाकी लगभग 80% हिस्सा उच्च शिक्षा में आरक्षण के लाभ से महरूम रह जाएगा क्योंकि इनमें ग्रेजुएशन तक पहुंचनेवाले लोग 3.88% से 17.02% के बीच हैं।
केंद्र सरकार अगर 80 फीसदी ओबीसी को उच्च शिक्षा का लाभ दिलाना चाहती है तो वह कानून में संशोधन जोड़कर क्रीमी लेयर को आसानी से इससे बाहर कर सकती है। वह सरकारी नौकरियों में ऐसा करती भी है और उसके पास क्रीमी लेयर की पूरी परिभाषा है।सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्री मीरा कुमार के अनुसार क्रीमी लेयर को फिर से परिभाषित करने और सालाना आय बढ़ाने आदि के लिए उनका मंत्रालय राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग से बीते साल ही समीक्षा और जरूरी सुझाव देने की सिफारिश कर चुका है।
प्रगतिशील बौद्धिकता और सामाजिक न्याय के आवरण को ओढ़े रखने की कोशिश करने वालों इन पत्रकारों और ‘विशेषज्ञों’ की ओर से अकसर आर्थिक आधार पर आरक्षण दिए जाने की वकालत की जाती है। वे दरअसल भलीभाँति जानते हैं कि परिश्रम, शिल्प-कौशल और अध्यवसाय से संपन्न पिछड़ा वर्ग परिस्थिति की तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद अपनी आर्थिक स्थिति को लगातार मजबूत करने के उद्यम में लगा रहता है, भले ही उसके लिए शिक्षा और सत्ता के दरवाजे बंद कर दिए गए हों। यदि आरक्षण का आधार आर्थिक हो और उसके लिए राजस्व अधिकारियों द्वारा जारी आय प्रमाण पत्र ही मानदंड हो तो अन्य पिछड़े वर्ग के लोग शायद ही आरक्षण का लाभ उठा पाएँ, क्योंकि समाज और सत्ता में पहले से प्रभावी ऊँची जाति के लोग पिछड़ी जाति के व्यक्तियों को अपेक्षित ओबीसी प्रमाण पत्र ही जारी नहीं होने देंगे। पूरे देश भर में राजस्व अधिकारियों द्वारा ओबीसी प्रमाण पत्र जारी किए जाने की प्रक्रिया में जो भ्रष्टाचार और लालफीताशाही है उसको देखते हुए आय प्रमाण पत्र को आरक्षण का आधार बनाया जाना न्यायोचित भी नहीं है। दूसरी बात यह कि आरक्षण का मूल प्रयोजन पिछड़े वर्गों के शैक्षिक पिछड़ेपन को दूर करना और सत्ता में उनकी भागीदारी को जनसंख्या में उनके अनुपात के स्तर तक बढ़ाना है, ताकि उन्हें संविधान में घोषित प्रतिष्ठा और अवसर की समानता हासिल हो सके। हमारे समाज में प्रतिष्ठा और अवसर की समानता शिक्षा और सत्ता के स्तर के आधार पर तय होती है, न कि आर्थिक आधार पर।
लेकिन हम कभी यह मूल्यांकन नहीं करते कि आरक्षण का फायदा क्या हुआ? क्या यह नीति अन्य सरकारी नीतियों की तरह हैं जिसका कोई फायदा नहीं? हम पहले यह क्यों नहीं देखते कि आरक्षण से समाज को क्या लाभ हुआ? दुनिया में आरक्षण जैसी कारगर संवैधानिक नीति नहीं बनी है। सिर्फ पचास साल में इसकी वजह से लाखों दलित इस हालत में पहुंच गए जिन्हें पांच हज़ार साल से किसी लायक नहीं छोड़ा गया था। युगों का पिछड़ापन और आधी सदी का विकास सिर्फ एक नीति से हुआ है। आरक्षण एक आश्चर्य है।


प्रदीप गोल्याण, Date:- 18. Apr 2008
विश्लेषक एवं लेखक
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