बुधवार, 9 जनवरी 2008

भगवान श्वी विश्वकर्मा जी पर शौध कार्य की आवश्यकता

साधन,औजार,युक्ति व निर्माण के देवता विश्वकर्मा जी के विषय में अनेकों भ्रांतियां हैं बहुत से विद्वान विश्वकर्मा इस नाम को एक उपाधि मानते हैं, क्योंकि संस्कृत साहित्य में भी समकालीन कई विश्वकर्माओं का उल्लेख है कालान्तर में विश्वकर्मा एक उपाधि हो गई थी, परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि मूल पुरुष या आदि पुरुष हुआ ही न हो, विद्वानों में मत भेद इस पर भी है कि मूल पुरुष विश्वकर्मा कौन से हुए। कुछ एक विद्वान अंगिरा पुत्र सुधन्वा को आदि विश्वकर्मा मानते हैं तो कुछ भुवन पुत्र भौवन विश्वकर्मा को आदि विश्वकर्मा मानते हैं,
ऋग्वेद मे विश्वकर्मा सुक्त के नाम से 11 ऋचाऐ लिखी हुई है। जिनके प्रत्येक मन्त्र पर लिखा है ऋषि विश्वकर्मा भौवन देवता आदि । यही सुक्त यजुर्वेद अध्याय 17, सुक्त मन्त्र 16 से 31 तक 16 मन्त्रो मे आया है ऋग्वेद मे विश्वकर्मा शब्द का एक बार इन्द्र व सुर्य का विशेषण बनकर भी प्रयुक्त हुआ है। परवर्ती वेदों मे भी विशेषण रुप मे इसके प्रयोग अज्ञत नही है यह प्रजापति का भी विशेषण बन कर आया है।
प्रजापति विश्वकर्मा विसुचित।

परन्तु महाभारत के खिल भाग सहित सभी पुराणकार प्रभात पुत्र विश्वकर्मा को आदि विश्वकर्मा मानतें हैं। स्कंद पुराण प्रभात खण्ड के निम्न श्लोक की भांति किंचित पाठ भेद से सभी पुराणों में यह श्लोक मिलता हैः-
बृहस्पते भगिनी भुवना ब्रह्मवादिनी ।
प्रभासस्य तस्य भार्या बसूनामष्टमस्य च ।
विश्वकर्मा सुतस्तस्यशिल्पकर्ता प्रजापतिः ।।16।।
महर्षि अंगिरा के ज्येष्ठ पुत्र बृहस्पति की बहन भुवना जो ब्रह्मविद्या जानने वाली थी वह अष्टम् वसु महर्षि प्रभास की पत्नी बनी और उससे सम्पुर्ण शिल्प विद्या के ज्ञाता प्रजापति विश्वकर्मा का जन्म हुआ। पुराणों में कहीं योगसिद्धा, वरस्त्री नाम भी बृहस्पति की बहन का लिखा है।
शिल्प शास्त्र का कर्ता वह ईश विश्वकर्मा देवताओं का आचार्य है, सम्पूर्ण सिद्धियों का जनक है, वह प्रभास ऋषि का पुत्र है और महर्षि अंगिरा के ज्येष्ठ पुत्र का भानजा है। अर्थात अंगिरा का दौहितृ (दोहिता) है। अंगिरा कुल से विश्वकर्मा का सम्बन्ध तो सभी विद्वान स्वीकार करते हैं। जिस तरह भारत मे विश्वकर्मा को शिल्पशस्त्र का अविष्कार करने वाला देवता माना जाता हे और सभी कारीगर उनकी पुजा करते हे। उसी तरह चीन मे लु पान को बदइयों का देवता माना जाता है।
प्राचीन ग्रन्थों के मनन-अनुशीलन से यह विदित होता है कि जहाँ ब्रहा, विष्णु ओर महेश की वन्दना-अर्चना हुई है, वही भनवान विश्वकर्मा को भी स्मरण-परिष्टवन किया गया है। " विश्वकर्मा" शब्द से ही यह अर्थ-व्यंजित होता है
"विशवं कृत्स्नं कर्म व्यापारो वा यस्य सः"
अर्थातः जिसकी सम्यक् सृष्टि और कर्म व्यपार है वह विशवकर्मा है।
यही विश्वकर्मा प्रभु है, प्रभूत पराक्रम-प्रतिपत्र, विशवरुप विशवात्मा है। वेदो मे " विशवतः चक्षुरुत विश्वतोमुखो विश्वतोबाहुरुत विश्वस्पात्" कहकर इनकी सर्वव्यापकता, सर्वज्ञता, शक्ति-सम्पन्ता और अनन्तता दर्शायी गयी है।
हमारा उद्देश्य तो यहाँ विश्वकर्मा जी का परिचय कराना है। माना कई विश्वकर्मा हुए हैं और आगे चलकर विश्वकर्मा के गुणों को धारण करने वाले श्रेष्ठ पुरुष को विश्वकर्मा की उपाधि से अलंकृत किया जाने लगा हो तो यह बात भी मानी जानी चाहिए।
हमारी भारतीय संस्कृति के अंतर्गत भी शिल्प संकायो, कारखानो, उधोगों मॆ भगवान विशवकमॉ की महता को प्रगत करते हुए प्रत्येक र्वग 17 सितम्बर को श्वम दिवस के रुप मे मनाता हे। यह उत्पादन-वृदि ओर राष्टीय समृध्दि के लिए एक संकलप दिवस है। यह जय जवान, जय किसान, जय विज्ञान नारे को भी श्वम दिवस का संकल्प समाहित किये हुऐ है।
यह पर्व सोरवर्ष के कन्या संर्काति मे प्रतिवर्ष 17 सितम्बर विशवकर्मा-पुजा के रुप मे सरकारी व गैर सरकारी ईजीनियरिग संस्थानो मे बडे ही हषौलास से सम्पन्न होता हे। लोग भ्रम वश इस पर्व को विश्वकर्मा जयंति मानते हे। जो सर्वदा अनुचित हे। भाद्रपद शुक्ला प्रतिपदा कन्या की संक्राति (17 सितम्बर), कार्तिक शुक्ला प्रतिपदा (गोवर्धन पूजा), भाद्रपद पंचमी (अंगिरा जयन्ति) मई दिवस आदि विश्वकर्मा-पुजा महोत्सव पर्व है। इन पर्वो पर भगवान विश्वकर्मा जी की पुजा-अर्चना की जाती है।
भगवान विशवकर्मा जी की वर्ष मे कई बार पुजा व महोत्सव मनाया जाता है। जैसे भाद्रपद शुक्ला प्रतिपदा इस तिंथि की महिमा का पुर्व विवरण महाभारत मे विशेष रुप से मिलता है। इस दिन भगवान विश्वकर्मा जी की पुजा अर्चना की जाती है। यह शिलांग और पूर्वी बंगला मे मुख्य तौर पर मनाया जाता है।
अन्नकुट (गोवर्धन पूजा) दिपावली से अगले दिन भगवान विश्वकर्मा जी की पुजा अर्चना (औजार पूजा) की जाती है। मई दिवस, विदेशी त्योहार का प्रतीक है।, रुसी क्रांति श्रमिक वर्ग कि जीत का नाम ही मई मास के रुसी श्रम दिवस के रुप मे मनाया जाता है। 5 मई को ऋषि अंगिरा जयन्ति होने से विश्वकर्मा-पुजा महोत्सव मनाया जाता है
भगवान विश्वकर्मा जी की जन्म तिथि माघ मास त्रयोदशी शुक्ल पक्ष दिन रविवार का ही साक्षत रुप से सुर्य की ज्योति है। ब्राहाण हेली को यजो से प्रसन हो कर माघ मास मे साक्षात रुप मे भगवान विश्वकर्मा ने दर्शन दिये। श्री विश्वकर्मा जी का वर्णन मदरहने वृध्द वशीष्ट पुराण मे भी है।


माघे शुकले त्रयोदश्यां दिवापुष्पे पुनर्वसौ।
अष्टा र्विशति में जातो विशवकमॉ भवनि च।।

धर्मशास्त्र भी माघ शुक्ल त्रयोदशी को ही विश्वकर्मा जयंति बता रहे है। अतः अन्य दिवस भगवान विश्वकर्मा जी की पुजा-अर्चना व महोत्सव दिवस के रुप मे मनाऐ जाते है। ईसी तरह भगवान विश्वकर्मा जी की जयन्ती पर भी विद्वानों में मतभेद है। भगवान विश्वकर्मा जी की वर्ष मे कई बार पुजा व महोत्सव मनाया जाता है।
निःदेह यह विषय निर्भ्रम नहीं है। हम स्वीकार करते है प्रभास पुत्र विश्वकर्मा, भुवन पुत्र विश्वकर्मा तथा त्वष्ठापुत्र विश्वकर्मा आदि अनेकों विश्वकर्मा हुए हैं। यह अनुसंधान का विषय है। अतः सभी विशवकर्मा मन्दिर व धर्मशालाऔं, विशवकर्मा जी से सम्भधींत संस्थाऔं, संघ व समितिऔं को प्रस्ताव पारित करके भारत सरकार से मांग जानी चाहीए की सम्पुर्ण संस्कृत साहित्य का अवलोकन किया जाय, भारत की विभिन्न युनीर्वशटीजो मे इस विष्य पर शौध की जानी चाहीए, विदेशों में भी खोज की जाय, तथा भारत सरकार विश्वकर्मा वशिंयो का सर्वेक्षण किसी प्रमुख मीडिया एजेन्सी से करवाऐ।
श्रुति का वचन है कि विवाह, यज्ञ , गृह प्रवेश आदि कर्यो मे अनिवार्य रुप से विशवकर्मा-पुजा करनी चाहिए

विवाहदिषु यज्ञषु गृहारामविधायके।
सर्वकर्मसु संपूज्यो विशवकर्मा इति श्रुतम।।

स्पष्ट है कि विशवकर्मा पूजा जन कल्याणकारी है। अतएव प्रत्येक प्राणी सृष्टिकर्ता, शिल्प कलाधिपति, तकनीकी ओर विज्ञान के जनक भगवान विशवकर्मा जी की पुजा-अर्चना अपनी व राष्टीय उन्नति के लिए अवश्य करनी चाहिए।

निर्माण क़ॆ देवता विश्वकर्मा

। जगदचक विश्वकर्मन्नीश्वराय नम: ।।
निर्माण के देवता विश्वकर्मा जी के विषय में अनेकों भ्रांतियां हैं बहुत से विद्वान विश्वकर्मा इस नाम को एक उपाधि मानते हैं, क्योंकि संस्कृत साहित्य में भी समकालीन कई विश्वकर्माओं का उल्लेख है।
निःदेह यह विषय निर्भ्र नहीं है। हम स्वीकार करते है प्रभास पुत्र विश्वकर्मा, भुवन पुत्र विश्वकर्मा तथा त्वष्ठापुत्र विश्वकर्मा आदि अनेकों विश्वकर्मा हुए हैं। यह अनुसंधान का विषय है। सम्पुर्ण संस्कृत साहित्य का अवलोकन किया जाय, विदेशों में भी खोज की जाय, क्योंकि यूरोपीय लोग भी विश्वकर्मा को फादर आफ आर्टस मानते हैं । यह उत्कृष्ट विद्वानों का महान कार्य है, परन्तु अब तक की खोज के आधार पर जो निष्कर्ष सम्मुख आया है उसी के आधार पर कहा जा सकता है कि मूल पुरुष विश्वकर्मा के पश्चात ही उपाधि प्रचलित होती है। प्रारंभ से नहीं, विश्वकर्मा ही नही, इन्द्र, व्यास, ब्रह्मा, जनक, धन्वन्तरि आदि अनेंकों ऐसी उत्कृष्ट विभूतियां उपाधियों के रुप में प्रचलित हैं, परन्तु इनका मूल पुरुष अवश्य है।जैसे देवराज इन्द्र जब विश्वकर्मा पुत्रों की हत्या कर दी। ब्रह्महत्या का पता लगा तो ऋषियों और देवताओं ने मिलकर देवराज इन्द्र को पदच्युत कर दिया और नहुष इन्द्र को इन्द्र की गद्दी पर आसीन कर दिया। इसी प्रकार सीताजी को राजा जनक की पुत्री माना जाता है। उसका नाम राजा सीरध्वज था। व्यास और ब्रह्मा उपाधि धारकों के लिए भी मूल पुरुष की खोज की जा सकती है।
हमारा उद्देश्य तो यहाँ विश्वकर्मा जी का परिचय कराना है। माना कई विश्वकर्मा हुए हैं और आगे चलकर विश्वकर्मा के गुणों को धारण करने वाले श्रेष्ठ पुरुष को विश्वकर्मा की उपाधि से अलंकृत किया जाने लगा हो तो यह बात भी मानी जानी चाहिए। शास्त्र में भी लिखा हैः-
स्थपति स्थापनाईः स्यात् सर्वशास्त्र विशारदः।
न हीनाग्डों अतिरिक्तग्डों धार्मिकस्तु दयापरः।।1।।
अमात्सर्यो असूयश्चातन्द्रियतस्त्वभिजातवान् ।
गणितज्ञः पुराणज्ञ सत्यवादी जितेन्द्रियः ।।2।।
गुरुभक्ता सदाहष्टाः स्थपत्याज्ञानुगाः सदा ।
तेषामेव स्तपत्याख्यो विश्वकर्मेति संस्मृतः ।।3।।
मयमतम् अ. श्लोक 15-16-23
अर्थः जो शिल्पी निर्माण कला में सिद्धहस्त सम्पूर्ण शास्त्रों का पूर्ण पंडित हो जिसके शरीर का कोई अवयव न अधिक हो न कम हो, दयालु और धर्मात्मा तथा कुलीन हो।।1।। जो अहंकार करने वाला ईर्ष्यालु और प्रमादी न हो, गणित विद्या का पुर्ण पंडित हो, वेदों के व्याख्यान रुप ब्राह्मण ग्रंथों और इतिहास में पारंगत हो, सत्यवादी तथा इन्द्रिंयों को जीतने वाहा आज्ञाकारी हो इस प्रकार के गुणों से युक्त रचयिता को विश्वकर्मा कहते हैं।।3।।
मयतम् के इस कथन से स्पष्ट होता है कि कालान्तर में विश्वकर्मा एक उपाधि हो गई थी, परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि मूल पुरुष या आदि पुरुष हुआ ही न हो, विद्वानों में मत भेद इस पर भी है कि मूल पुरुष विश्वकर्मा कौन से हुए। कुछ एक विद्वान अंगिरा पुत्र सुधन्वा को आदि विश्वकर्मा मानते हैं तो कुछ भुवन पुत्र भौवन विश्वकर्मा को आदि विश्वकर्मा मानते हैं, परन्तु महाभारत के खिल भाग सहित सभी पुराणकार प्रभात पुत्र विश्वकर्मा को आदि विश्वकर्मा मानतें हैं। स्कंद पुराण प्रभात खण्ड के निम्न श्लोक की भांति किंचित पाठ भेद से सभी पुराणों में यह श्लोक मिलता हैः-
बृहस्पते भगिनी भुवना ब्रह्मवादिनी ।
प्रभासस्य तस्य भार्या बसूनामष्टमस्य च ।
विश्वकर्मा सुतस्तस्यशिल्पकर्ता प्रजापतिः ।।16।।
अर्थ – महर्षि अंगिरा के ज्येष्ठ पुत्र बृहस्पति की बहन भुवना जो ब्रह्मविद्या जानने वाली थी वह अष्टम् वसु महर्षि प्रभास की पत्नी बनी और उससे सम्पुर्ण शिल्प विद्या के ज्ञाता प्रजापति विश्वकर्मा का जन्म हुआ। पुराणों में कहीं योगसिद्धा, वरस्त्री नाम भी बृहस्पति की बहन का लिखा है।
प्रश्न – आप आदि विश्वकर्मा किसे मानते, और यह बात आप किस आधार पर कह सकते हैं।
उत्तर – हम प्रभास पुत्र भुवना माता से उत्पन्न विश्वकर्मा को ही आदि या मूल विश्वकर्मा मानते हैं। हजारो वर्ष पहले महाराज देव ने जो संस्कृत के प्रकाण्ड पण्डित थे । वास्तु विद्या का एक ग्रंथ “समरांगण सूत्रधार” लिखा था, उसमें लेखक ने अपना इष्टदेव भगवान विश्वकर्मा को माना है। उन्होने ग्रंथ के आदि में अपने इष्ट के स्तवन करते हुए लिखा –
तदेशः त्रिदशाचार्य सर्व सिद्धि प्रवर्तकः
सुत प्रभासस्य विभो स्वस्त्रीयश्च बृहस्पतेः ।।
अर्थ – शिल्प शास्त्र का कर्ता वह ईश विश्वकर्मा देवताओं का आचार्य है, सम्पूर्ण सिद्धियों का जनक है, वह प्रभास ऋषि का पुत्र है और महर्षि अंगिरा के ज्येष्ठ पुत्र का भानजा है। अर्थात अंगिरा का दौहितृ (दोहिता) है। अंगिरा कुल से विश्वकर्मा का सम्बन्ध तो सभी विद्वान स्वीकार करते हैं। भोजदेव के प्रमाण में किसा को शंका यों नहीं होनी चाहिये कि आधुनिक काल के महाविद्वान महर्षि दयानन्द ने लिखा है –
“ महाभारत के पश्चात हजारों वर्ष व्यतीत होने पर भोज का वेंदों का ज्ञान था। भोजकाल में ही शिल्पियों ने काठ का घोडा बनाया था। जो एक घन्टे में सत्ताईस कोस चलता था। ऐसा ही एक पंखा बनाया था जो बिना मनुष्य के चलाये पुष्पकल वायु देता था। यदि ये पदार्थ आज तक बने रहते तो अंग्रेजो को अपने विज्ञान का इतना गर्व नही होता। भोजकाल में किसी ने वेद विरुद्ध पुराण बनाकर खडा किया था तो राजा भोज ने उसके हाथ कटवा दिये थे।”
हमारा कथन यह है कि जब हजारो वर्ष पहले तक आदि विश्वकर्मा को महर्षि प्रभास का पुत्र मानने का प्रचलन था या परम्परा थी तो अब इस काल में शंका क्यों की जाती, विश्वकर्मा कोई आधुनिक का के देवता तो नहीं हैं, ये तो वैदिक कालीन हैं। ऋगवेद जो विश्व का सबसे प्राचिन ग्रंथ माना जाता है, उसमे चौदह ऋचाओं वाला विश्वतर्मा सूक्त है। यदि पुराणों को वेदव्यास की रचना माना जाय तो पद्मपुराण भुखण्ड के इन शब्दों पर विचार करें – सर्व देवेसु यत्सूक्तं पठ्यते विश्वकर्मणः। चतुर्दशा वृतेनैनं यइमेत्यादिना यजेत्।।२।। अर्थात सभी देवगण विश्वकर्मा संबंधी जिस सूक्त का पाठ कर यजन करते हैं वह सूक्त यइमाभिवनानि मंत्र से आरंभ होता है और ऋगवेद मण्डल दस सूक्त बयासी के सातवें मंत्र तक चौदह ऋचाओं में पुर्ण होता है। यास्काचार्य ने भी निरक्त में विश्वकर्मा के सार्वभौम यज्ञ का वर्णन करते हुये लिखा – तदभिवादिनी एषा ऋक् भवति । यइमा विश्वा भुवनानि जुह्वत इतु। इस कथन में भी ऋगवेद के यइमा शब्दों से यज्ञ सम्पन्न हुआ। चौदह मंत्रो का यह सूक्त और इसका देवता तथा ऋषि तीनों ही विश्वकर्मा नाम से ऋगवेद में उल्लिखित हैं। हजारें-हजारों वर्षों के ये शास्त्रीय प्रमाण सिद्ध करते हैं कि निर्माण देवता विश्वकर्मा की पुजा के प्रसंग में अत्यंत प्राचीन काल से यजन याजन होते रहे है। भारतीय इतिहास में इतनी प्राचीन वैदिक पूजा पद्धती और किसी देवता से नहीं मिलती।
प्रश्न – सूक्त का क्या अर्थ है और वेदों में कितने सुक्त होते हैं ?
उत्तर – सूक्त शब्द सू + उक्त इस प्रकार बना है। सू का अर्थ है सुन्दर ढंग से या भली प्रकार, उक्त का अर्थ है कहना या बताना, जिस मंत्र समूह में किसी विषय को भली प्रकार कहा जाय अर्थात सुन्दर अभिव्यक्ति को सूक्त कहते हैं। वेदों में सैकडों ही सूक्त हैं जैसे इन्द्र सूक्त, अग्नि सूक्त, सृष्टि सूक्त इसी प्रकार विश्वकर्मा सूक्त हैं।
प्रश्न – यह बात तो समझ में आ गई जब प्रभास पुत्र विश्वकर्मा की आदि विश्वकर्मा के रुप में हजारों वर्ष पूर्व से मान्यता रही है तो यह विवाह का विषय नही रहा। परन्तु एक शंका नए सिरे से उभरकर सामने आई है। आपने बताया विश्वकर्मा सूक्त का मंत्र द्रष्टा ऋषि भौवन विश्वकर्मा है जिसे दूसरे विद्वान भुवन पुत्र विश्वकर्मा बताते हैं। प्रभास पुत्र विश्वकर्मा के साथ तो भौवन शब्द कैसे सिद्ध होगा या फिर वेद मंत्र द्रष्टा ऋषि दूसरा विश्वकर्मा मानना पडेगा ?
उत्तर – हमने जैसा कि पहले बताया है विश्वकर्मा का विषय गहन अनुसंधन का है फिर भी भौवन शब्द का निराकरण वेद के भाष्य कर्ता शतायु विद्वान श्रीपाद दामोदर सातवलेकर ने अपनी लिखी पुस्तक “विश्वकर्मा ऋषि का तत्वज्ञान” में अनेकों विद्वानों के मत से इस प्रकार किया गया है कि प प्रभास पुत्र विश्वकर्मा की माता जो देवगुरु बृहस्पति की बहन है उसका नाम भुवना होने के कारण पुत्र का नाम भौवन विश्वकर्मा माना गया है, और यही भौवन विश्वकर्मा वैदमंत्र द्रष्टा ऋषि हैं। भुवना शब्द भुवन से बना है जिसका अर्थ है लोक। तीनों भुवनों (लोंकों) में जिसकी ख्याति हो उसे भुवना कहते हैं।
प्रश्न – आपने विश्वकर्मा को सभी देवताओं का आचार्य बताया है। हमें यह मान्यता पक्षपातपूर्ण लगती है, स्पष्टिकरण किजीए।
उत्तर – हमने नहीं, महाराज भोजदेव ने “समरांगण सूत्रघार” में उन्हें तदेश त्रिदशाचार्य सर्व सिद्धि प्रवर्तक अर्थात सिद्धियों का जनक और देवताओं का आचार्य माना है। अष्ट सिद्धि और नव निधिंया मानी गयी है। आज भी जिस समाज और राष्ट के नागरिकों को शिल्प विज्ञान का ज्ञान है, सम्पुर्ण सिद्धियां मौजुद हैं वे ही देवताओं के आचार्य हैं। भोजदेव ने ही क्यों पुराणों में विश्वकर्मा जी को सर्व देव मय माना है। स्कन्द पुराण नागर खण्ड में लिखा है-
विश्वकर्माअभवत्पूर्व ब्रह्मरस्त्वपरातनुः ।
अर्थात पुर्व काल में ब्रह्मा जी और विश्वकर्मा जी का एक ही शरीर था। यहां विश्वकर्मा को ब्रह्मा का स्वरुप माना जाता है। वायु पुराण में आता है “विष्णुश्च विश्वकर्माचनभिद्येतेपरस्परम्” विष्णु भगवान और विश्वकर्मा में कोई भेद नही मानना चाहिये। ज्योतिष के प्रसिद्ध ग्रंथ बृद्धवाशिष्ठ में लिखा है “माघे शुक्ले त्रयोदश्यांदिता पुण्ये पुनर्वसौ। अष्टा विंशति में जातः विश्वकर्मा भवानि चः। अर्थ – शिवाजी महाराज अपनी पत्नी पार्वती को कह रहे हैं माघ मास के शुक्ल पक्ष में त्रयोदशि के दिन पुनर्वसु नामक नक्षत्र के अट्ठाईसवें अंश में विश्वकर्मा स्वरुप में उत्पन्न हुआ। यहां शिव अपने को विश्वकर्मा स्वरुप में मान रहें है। पुराणों स्पष्ट उल्लेख है “कृष्णश्च विश्वकर्मा च न भिद्यते परस्परम्। ” अर्थात भगवान कृष्ण और विश्वकर्मा में कोई भेद नहीं है। पुराणों के इन प्रमाणों से सभी शिरोमणि देवगण ब्रह्म, विष्णु, शिव और भगवान कृष्ण तक विश्वकर्मा स्वरुप में अपने को स्वीकार करते है। देवियों में विद्या की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती देवी सर्व प्रथम वन्दनीय मानी जाती है, उसके लिये भी पुराणकार कहते हैं त्वाष्ट्ररुपा सरस्वती अर्थात सरस्वती देवी भी विश्वकर्मा जी का ही स्वरुप हैं। पुराण तो वेदव्यास जी महाराज के लिखे माने जाते हैं। जब वेदव्यास जी सम्पूर्ण देवी देवताओं को विश्वकर्मा स्वरुप मानते हैं तो विश्वकर्मा जी को देवताओं का आचार्य मानने में किसे सन्देह हो सकता है ?
प्रश्न – जैसा की आपने भी माना है सभी विद्वान और शास्त्रकार विश्वकर्मा जी को अंगिरा ऋषि कुल से जोडते हैं परन्तु अंगिरा ऋषि को तो ब्राह्मण मात्र गोत्रकार ऋषि मानते हैं फिर आपका ही विशेष लगाव कैसे माना जाय ?
उत्तर – निःसंदेह महाभारत में लिखा है भार्गवांगिरसो लोके संतान लक्षणौ इसका तात्पर्य है पृथ्वी पर सभी मनुष्य भृगु और अंगिरा की संतान है इसलिये इन ऋषियों पर सभी का अधिकार माना जा सकता है। परन्तु विश्वकर्मा वंशजो का तो अंगिरा से सीधा ही सम्बन्ध है। विश्वकर्मा ब्राह्मण लोग अथर्ववेदी हैं, अथर्ववेद का ज्ञान परमात्मा ने अंगिरा ऋषि द्वारा ही ब्रह्मा और दूसरे ऋषियों तक पहुँचाया हैं, सृष्टी के आरंभ में चार ऋषियों द्वारा ही चारों वेदों का ज्ञान मानव मात्र के लिये दिया, ऐसी वेदों की मान्यता है। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद का ज्ञान क्रमशः अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा ऋषियों द्वारा ही मानव जाति को प्राप्त हुआ। इस बात को वेदों के सभी विद्वान स्वीकारते हैं, चारें वेदों के चार ही उपवेद हैं। संस्कृत साहित्य के ग्रंथ चरणव्यु आदि में स्पष्ट उल्लेख है “आयुर्वेदश्चिकित्सा शास्त्रंऋग्वेदस्योपवेदः । धनुर्वेदो युद्ध शास्त्रंयजुर्वेदस्यापवेदः । गंधर्ववेद संगीत शास्त्रं सामवेदस्योपरेदः । अर्थवेदों (स्थापत्यवेदों) विश्वकर्मादि शिल्प शास्त्रं अथर्ववेदस्योपवेदः।।4-5।।
अर्थ – ऋग्वेद का उपवेद आयुर्वेद है जिसे चिकित्सा शास्त्र कहते हैं। यजुर्वेद का उपवेद धनुर्वेद है जिसे संगीत शास्त्र कहते हैं, और अथर्ववेद का उपवेद अर्थवेद है, जिसके अन्तर्गत विश्वकर्मा का सम्पुर्ण शिल्प शास्त्र आता है। इस प्रकार हम वंशावली के साथ-साथ अथर्ववेदी होने के नाते सीधे अंगिरा ऋषि से जुड जाते हैं।
प्रश्न – विश्वकर्मा जी की पुत्री सूर्य को विवाही थी, वह सूर्य का तेज सह नहीं सकी तो विश्वकर्मा जी ने अपनी पुत्री से पूछकर जितना तेज वह सह सकती थी उतना छोडकर बढा हुआ तेज सूर्य को खराद पर चढाकर छील दिया, उससे देवताओं के लिए अनेकों प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों का निर्माण किया। यह तथा भागवत पुराण के षष्ठस्कंद में आती है इसकी वास्तविकता बताइये ?
उत्तर – विज्ञान के युग ऐसी बातें नहीं मानी जा सकतीं । यह तो ऐसी बात है जैसे श्री हनुमान चालीसा में श्री हनुमान जी के लिये जब तीनों लोकों में अंधियारा छा गया। ये अतिरंजित करके लिखी हुई बातें हैं जो सम्भव नहीं है। विश्वकर्मा जी की पुत्री जिसका नाम पुराणों में संज्ञा लिखा है, वास्तविक नाम रेणु या सुरेणु था, पाठ भेद से दोनों ही नाम आते हैं। सुरेणु विवस्वान सूर्य नाम के प्रतापि राजा के विवाही थी, कारणवश (पुराणों में लिखा है अप्रसन्न होकर) सुरेणु पिता के घर उत्तर कुरु आई उसके बाद सूर्य भी आकर ससुराल में रहे। विवस्वान सूर्य ने सुरेणु को अश्व पर आरुढ करके घुमाया-फिराया । जन साधारण अश्व पर आरुढ हुई सुरेणु को अश्विनी कहकर पुकारा जाने लगा।
कालान्कर में इस अश्विनी से दो जुडवा पुत्र पैदा हुए, उनका नाम अश्विनी कुमार रखा गया, ये बालक अतिशय प्रभावशाली और तेजस्वी थे, इन्होंने आयुर्वेद का ज्ञान प्राप्त किया और अपनी विलक्षण बुद्धि के कारण अश्विनी कुमार देवतोओं के यशस्वी वैद्य बन गये। ये शल्य क्रिया निष्णात थे, इन्द्र की टूटी भुजा इन्होने ठीक की थी, अंधो को आँखे प्रदान की । अंग प्रत्यरोपण विद्या इन्हें आती थी। इन्हीं अश्विनी कुमारों ने वृद्ध च्यवन ऋषि को पुनर्युवा बनाने के लिए च च्यवनप्राश बनाकर दिया था, जो हजारों वर्षों से आयुर्वेद का आश्चर्यजनक टॉनिक चला आ रहा है। अष्टवर्ग आदि मूल्यवान और शुद्ध औषधियाँ नही मिलने के कारण अब च्यवनप्राश इतना प्रभावशाली नही रहा है। नाना विश्वकर्मा ने अपने दोहिते अश्विनी कुमारों की चतुर्दिक ख्यति जानकर इनके शीघ्र गमन के लिये एक हल्का यान बनाकर दिया था।
प्रश्न – विश्वकर्मा जी की मूर्तियाँ चित्र में कहीं चार मुख और कहीं पांच मुख बताये जाते है, आरती में भी द्विभुज चतुर्भुज पंचाननराजे बोला जाता है, इसे समझाइये ।
उत्तर – किसा भी मानव देहधारी साधारण या असाधारण व्यक्ति के एक मुख से अधिक नही होते यह सृष्टी का नियम है। ये चार या पांच मुख प्रतिक बताये जाते है। मुख का अर्थ है मुख्य, शरीर का मुख्य भाग मुख कहलाता है। मुख्य भाग में सारी ज्ञानेंन्द्रिंया होती है, इयलिये मुख का अर्थ ज्ञान है। चार मुख से तात्पर्य है चारों वेदों का ज्ञान, और पांचवें मुख से अर्थ लेना चाहीए चारों वेदों के ज्ञान को जो कार्यरुप में परिणत कर दे वह पंचमुखी कहलाता है।
काशीस्थ विद्वानों द्वारा प्रणीत पं. नीलकंठ भट्ट द्वारा सम्पादित“प्रतिष्ठामयूख” ग्रंथ हमारे सम्मुख है, इसके पृष्ट सैंतिस पर प्रतिष्ठा करते समय यजमान से विश्वकर्मा स्वरुप कस ध्यान करने का जो निर्देश दिया गया है वह इस प्रकार है –
विश्वकर्मा तु कर्त्तव्यःश्मश्रुलो मासलाधरः ।
संदंश पाणिनी द्विर्भुजस्तेतो मूर्ति प्रतापवान ।।
इतिध्यात्वा
अर्थ – विश्वकर्मा देव जो हृष्ट पुष्ट ब्रह्मचारी दाढी मूछोंवाले अत्यन्त प्रतापी तेजस्वी पुष्ट ओंष्टों तथा दो भुजाओं वाले जिनके हाथ में सन्डासी (निर्माण यंत्र) है इस प्रकार इनके स्वरुप का ध्यान करना चाहिये । इसमें भी विश्वकर्मा का स्वरुप एक भुजाओं और (श्मश्रु) दाढीवाला बताया गया है। दाढी वाले दो ही देवता है ब्रह्मा और विश्वकर्मा।
वास्तु शास्त्र के ग्रन्थ राजवल्लभ में पंचमुखी विश्वकर्मा स्वरुप इस प्रकार बताया गया है –
कम्बा सूत्राम्बच मंच वहति करतले ज्ञान सूत्रम् ।
हंसारुढस्त्रिनेत्रं शुभं मुकुट सर्वतो वृद्धकायः ।।
अर्थात – जिसके हाथ में जलपात्र कमण्डलु तथा शिल्पाशास्त्र है, हंस पर आरुढ हो पीताम्बर पहने है, सिर पर मुकुट घारण किये हैं तथा सभी ओर जिनका शरीर ज्ञान ज्योति से दीप्तिमान विशालकाय है, ऐसे प्रभु विश्वकर्मा का ध्यान करना चाहिये।
पं. हरिकेश दत्त शास्त्री

पं. हरिकेश दत्त शास्त्री, http://www.vishwakarmasamaj.com

श्री विश्ववकर्मा धीमान समाज की वरीयताः एक निर्धारित अध्ययन

अध्ययनकर्ता व संवाद रचियता
प्रदीप गोल्याण (M.B.A., std. Ph.D), रिसर्च फैलो, गु० ज० वि०, हिसार
संग्रहकर्ता
1. सत्यपाल बुडायन, सचिव, कोपरेटिव बैंक, किठाना
2. विजय धीमान, एस० ए०, हरि० वि० प्र० नि०, जीन्द

Jh विश्वकर्मा समाज ने जितना संधर्ष किया, उतना परिणाम सामने नही आया। अभी इस समाज मे संतोषजनक जागृति नही आई है। अगर विश्वकर्मा हमारे निर्माता है।, तो हम समाज के निर्माता है। नए वातावरण व आधुनिक कंप्युटरीकृत युग मे हमे देखना है की समाज का निर्माण कैसे करना है (महेन्द्र सिह पंचाल, 2007)? हम विश्वकर्मावंशी महान सामाजिक प्राणी हैं। समाज के सभी प्राणीयों का जीवन सुखीमय बनाने में हमारा महान योगदान है। हमने अपने बुद्धि कौशल तथा अथक प्रयास से वास्तुकला, आधुनिक आविष्कार व वैजानिक तकनीकों का विकास किया है। इतना महान सामाजिक प्राणी होते हुए भी हमारा समाज प्रगति की दौड व विकास मे अन्य जातियों से पिछड क्यों रहा है? यह एक विचारणीय विषय है।
 अतः हमारा सवाल है कि धीमान समाज के विकास को प्रभावित करने वाले कारक कौन से है जो धीमान समाज के पिछडने का कारण है?

 अध्ययन पद्धति
सामाजिक समस्याओं का माप - दो आधार
1) सांस्कृतिक दृष्टिकोण से सामाजिक समस्याओं का माप लोगो के मूल्य निर्णय ही हैं। प्रत्येक समाज के अपने कुछ मूल्य, आदर्श, नैतिक नियम होते है। इन्ही को मापदण्ड के रुप मे प्रयोग किया जाता है।
2) सामाजिक समस्याओं का सांख्यिकीय माप भी सम्भव है। आधुनिक समय मे सरकारी व गैरसरकारी संस्थानों द्वारा विभिन्न सामाजिक समस्याओं के सम्बन्ध मे आंकडे एकत्रित किए जाते हैं उन आंकडों की सहायता से हम अधिकांश सामाजिक समस्याओं की गम्भीरता को माप सकते है।
अतः इस अध्ययन को दो भागों मे विभाजीत किया गया है प्रथंम भाग मे समाज के पास सामाजिक साहित्य की कमी को देखते हुए समाज के बुद्धिजीवि, दार्शनिक, चिंतक, समाजसेवी, वरिष्ट नेतृत्व, संपादक व पत्रकारों के विचारों, आलेख व सुझावों के माध्यम से धीमान समाज मे प्रचलित सांस्कृतिक मापदण्ड जैसे सामाजिक मूल्य, आदर्श, नैतिक नियम आदि की वरीयता पर अध्ययन किया गया है इन्ही के आधार पर धीमान समाज मे विध्यमान दस उपकल्पनाओं को परिभषित किया गया है।
द्वितिय भाग मे दस उपकल्पनाओं पर सांख्यिकीय तकनीकों के द्वारा विभिन्न सामाजिक समस्याओं के सम्बन्ध मे धीमान समाज के 110 प्रतिवादियों से आंकडे एकत्रित कर उनका विश्लेषण किया गया है वर्तमान अध्ययन मे प्राथमिक आकडे प्रश्नपत्र के माध्यम से प्राप्त किए गए हैं।
 अध्ययन की उपयोगिता
अध्ययन की उपयोगिता इस बात से मानी जाती है कि उसमें कितने संदर्भ प्रयोग किये गये है व अध्ययन के लिए कौन सी तकनीक का प्रयोग किया गया है। अध्ययन की उपयोगिता तथ्यों पर भी आधारित होती है। वर्तमान अध्ययन को दो भागों मे विभाजित धीमान समाज मे प्रचलित सांस्कृतिक मापदण्ड व सांख्यिकीय तकनीकों के द्वारा विभिन्न सामाजिक समस्याओं के सम्बन्ध मे धीमान समाज के 110 प्रतिवादियों से आंकडे एकत्रित कर उनका विश्लेषण किया गया है। धीमान समाज मे प्रचलित सांस्कृतिक मापदण्डों के लिए 16 संदर्भ प्रयोग किये गये है। सांख्यिकीय तकनीकों मे औसत, मानक विचलन व कारक विश्लेषण आदि का प्रयोग किया गया है। इस अध्ययन के तथ्य धीमान समाज के बुद्धिजीवि वर्ग से मेल खाते है। अध्ययन के प्रस्ताव समाज के वरिष्ठ नेतृत्व व बुद्धिजीवि वर्ग को समाज मे व्यापक सामाजिक समस्याओं का समाधान कर समाज के विकास के लिए नितियां बनाने व विभिन्न संगठनो के उदेश्य निर्धारित करने के लिए किया जा सकता है। यह अध्ययन भविष्य मे किये जाने वाले अध्ययनों के लिए एक आधार व दिशा प्रदान करने मे सक्षम है अतः अन्य अध्ययनकर्ता भी इसका प्रयोग कर सकते हैं
सामाजिक समस्या एक ऐसी अवस्था होती है जिसे की समाज के काफी लोग अवांछनिय मानते हैं इस लिए ये लोग यह विश्वास करते है कि उस परिस्थिति के विषय मे कुछ न कुछ अवश्य ही करना चाहिए। इसका तात्पर्य यही हुआ कि संस्कृति से उपलब्ध हमारा मूल्य निर्णय कुछ अवस्थाओं को सामाजिक समस्या के रुप मे परिभाषित करता है। (रिचार्ड सी. फुलर) सामाजिक समस्या का सम्बन्ध किसी व्यक्ति विशेष के व्यवहार से नही अपितु समाज के बहुत से सदस्यों के किसी दुर्व्यवहार, कठिनाई, बुरे या अवांछनिय क्रियाकलाप से होता है। कौन सा व्यवहार बुरा या अवांछनिय है, इसका अन्तिम निर्णय समाज मे प्रचलित सांस्कृतिक मापदण्ड जैसे सामाजिक मूल्य, आदर्श, नैतिक नियम आदि के द्वारा ही होता है (सरला दुबे,1999)
पदमभूषण स्वामी कल्याण देव जी (2000) ने कहा कि गांव गांव तक छोटे बडे विश्वकर्मा स्कूल बनने चाहिए। उन्होने स्पष्ट भाषा मे उदघोष किया की अब मन्दिरों की नही स्कुलों तथा तकनीकी प्रशिक्षण केन्द्रों की जरुरत है। हमारा समाज शिक्षा के कारण ही पिछडा है। उन्होने आह्वान किया कि पूरे विश्वकर्मा समाज का एक ही संगठन बनना चाहिए तथा विश्वकर्मा जी को अपना गुरु मानकर कार्य करना चाहिए। उन्होने यह भी चेतावनी दी कि जब तक समाज महिलाओं को बराबर खडा नही करेगा, तब तक उन्नति नही होगी। रामशरण पांचाल युयुत्सु (2000) ने सचेत किया कि आज पुरा समाज अनेक घटकों मे विभाजित होकर जडता की और अग्रसर है। जो समाज की उन्नति मे तो बाधक है तथा समाज अपने लक्ष्यों से दूर होता जा रहा है। अभिभावकों को अपनी फिजूलखर्ची को सीमित करके बच्चों की उच्च शिक्षा पर ध्यान देना चाहिये। उन्होने आह्वान किया कि घर से यदि सम्भव ना हो तो कम से कम हर एक नगर व कस्बे से आई. ए. एस, इंजीनियर व डाक्टर बनने चाहिये। उन्होने अपील की समाज के सम्पन्न लोग एक एक बच्चे को सामाजिक तौर पर गोद लें तथा उन्हें पढ़ाने मे आर्थिक सहयोग उपलब्ध करायें।
हमारे नेताओं से समाज को दिशा बोध तब प्राप्त होगा, जब उनके आचरण मे सामाजिकता होगी। उनके ह्रदय मे समाज सेवा की आग होगी। जब आग है ही नही, तो उसका ताप कहां से प्रगट होगा। आप चाहते हैं संगठन करना और फिर अंतर मे विघटन का षडयत्र चल रहा हो संगठन खडा नही हो पायेगा। संगठन खडा करना, चलाना है तो संगठन का उदेश्य सर्व प्रथम सामने होना चाहिए। (डा लक्ष्मी निधि, 2006) समाज के नेता आजकल समाज मे अपनी चौधर के लिए अलग अलग गुट बनाए हुए है। अगर समाज मे नेताओं की ही आपस मे एकता नही होगी, तो ये समाज का कैसे भला करेंगे। (दिलबाग सिंह पांचाल, 2007) आज असंख्य सामाजिक संस्थाओं के प्रगति का यदि निष्पक्ष मूल्याकंन किया जाए तो परिणाम अपेक्षा के अनुरुप शायद ही मिले। अनेक कारणों से ये संस्थाएं प्राय निष्प्रभावी व शिथिलता को प्राप्त होती दिखाई पड रही हैं। किन्ही मे संकल्पों का अभाव खटक रहा है। किन्ही मे पारस्परिक सहयोग व सामंजस्य की कमी खल रही है। तो कंही कार्यकर्ताओं के मार्ग में अति महत्वकांक्षियों के जमघट अवरोध बन कर खडे है। इन विषम परिस्थितियों पर पार पाने के लिए संस्थाओं के शिखर नेतृत्व की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। (इंद्रजीत शर्मा जगदेव, 2007)
आज के युग मे जहां हर तरफ झूठे, बेहुदा प्रभाव की चकाचौंध, वैश्वीकरण, राजनैतिक व परिदृशवी आदि है। ऐसे मे समाज को मजबूत व संगठित नही किया गया तो हमें अपनी संस्कृति, विचारधारा तथा समाज को अक्षुण बनाये रखने के लिए जबरदस्त पसीना बहाना पडेगा। समाज ऐसे सशक्त हाथों मे होना चाहिये कि यदि प्रलय भी आ जाय तो समाज एकजुट होकर कार्य करने के लिए तत्पर रहे। (अमर सिंह धीमान 2007) समाज को उच्च शिक्षा व कार्यदक्षता पर ध्यान देना चाहिये, समाज की आवश्यकता है कि हमारे लोगों मे नेतृत्व शक्ति का विकास हो, हमारा समाज सभी क्षेत्रों मे प्रवेश करे। यदि समय के साथ चलना है और शासन तथा सता पर अपना अधिकार लेना है तो संगठन शक्ति को बढ़ाना आज की प्रथंम आवश्यकता है (प्रदीप गोल्याण, 2007) संगठन के उदेश्यों के बारे में आम लोगों को जागरुक बनाएं। लोगों की समस्याओं को सुने व उन्हे सुलझाने का प्रयास करें तथा अधिक से अधिक समाज के लोगों से सम्पर्क करें। संगठन का नेतृत्व निस्वार्थ तथा पारदर्शी होना चाहिए। संगठन को चुस्त व कार्यशील रखने के लिए ब्लाक, तहसील, जिला व प्रदेश स्तर पर नियमित रुप से मीटिगों का आयोजन किया जाना चाहिए। (प्रेमसागर धीमान, 2007)
विश्वकर्मा समाज सदियों से पिछडा हुआ है जो लोग गावों मे रह रहे है। उनकी स्थिति तो और भी दयनीय है। अन्य कारण भी रहे होगें पर इस समाज के पिछडेपन का मुख्य कारण नशा है। हम समाज के उत्थान का उदेश्य हासिल तब तक नही कर सकते जब तक समाज के मान सम्मान को नष्ट करने लिए एक ही नशाखोर पर्याप्त है। (बचना राम धीमान, 2007) समाज मे जान की कमी के कारण ही आपसी झगडे, शराब व नशे का सेवन, दहेज की मांग जैसी कुरीतियों का प्रभाव बना रहता है। समाज मे मीडिया की बहुत कमी है। जो कुछ गिने चुने लोग पत्र पत्रिकाएं निकाल रहे है। वह सदा संकट मे रहते हैं। ये समाज की सेवा मे तो हैं। परन्तु उन्हे समाज का भरपूर सहयोग नही मिलता है। (माघी राम धीमान, 2007) किसी समाज की उन्नति व समृद्धि तब तक कोई अर्थ नही है जब तक समाज की बहन व बेटियां अशिक्षित हैं आज विश्वकर्मा समाज को अपनी बेटियों को अधिक से अधिक शिक्षित करने की नितांत आवश्यकता है। वर्तमान समय की यह मांग है कि हमारी बहने अपने धार्मिक, सामाजिक व महिला मण्डल आदि संगठन बनाए व विश्वकर्मा साहित्य अध्ययन कर इसका प्रचार प्रसार करें तांकि विश्वकर्मा समाज मे चेतना शक्ति और विकास का सुत्रपात हो सके। (सोमदत धीमान, 2007)
समाज के बुद्धिजीवि, दार्शनिक, चिंतक, समाजसेवी, वरिष्ट नेतृत्व, संपादक व पत्रकारों के विचारों, आलेख व सुझावों के माध्यम से धीमान समाज मे प्रचलित सांस्कृतिक मापदण्डों के आधार पर हमने पाया की समाज का यह बुद्धिजीवि वर्ग शिक्षा, उच्च शिक्षा, पारिवारिक समस्या, संगठन, संगठन कार्य प्रणाली, एकता शक्ति, भाईचारा, नेतृत्व गुण व नेतृत्व शैली, व नशे से सम्बन्धीत सामाजिक समस्याओं पर ज्यादा व्याख्या कर रहा है ftlds dkj.k ;g lekt vU; समाजों ls fiNMk gSaA अतः इनही विचारों, आलेख व सुझावों के आधार पर धीमान समाज मे विध्यमान दस उपकल्पनाओ को परिभाषित किया गया है। जिनका विवरण तालिका मे दिया गया है।
 तालिका:- उपकल्पनाओ का विवरण

1.शिक्षा का स्तर बढ़ने से श्री विशवकर्मा धीमान समाज का विकास हुआ है
2.श्री विशवकर्मा धीमान समाज के विकास लिए बच्चों को उच्च शिक्षा न दिलवाकर स्वयं रोजगार मे लगाना चाहिए
3.श्री विशवकर्मा धीमान समाज के बच्चे अपनी पढ़ाई को आर्थिक तंगी, पारिवारिक कल्ह व पारिवारिक लापरवाही के कारण बीच मे ही छोड देते हैं
4.श्री विशवकर्मा धीमान समाज मे पारिवारिक कल्ह का कारण रोजगार का न होना व आर्थिक तंगी हैं
5.श्री विशवकर्मा धीमान समाज मे कुठां व आपसी भाई चारे कि कमी का कारण, शिक्षा का न होना व साकारात्मक सोच की कमी है
6.श्री विशवकर्मा धीमान समाज के कल्याण के लिए कोई संघ/ समिति/संगठन का होना आवशयक है
7.श्री विशवकर्मा धीमान समाज के संघ/समिति/संगठन पदाधिकारियों का उच्च शिक्षित होना, राजनैतिक भागीदारिता होना व अच्छी वितिय स्थिति का होना आवशयक है
8.श्री विशवकर्मा धीमान समाज के नेता व बुध्दिजीवि वर्ग निःस्वार्थ भाव व लगन से सामाज की समस्याऔ की जानकारी प्राप्त कर उनका समाधान निकालते हैं
9.श्री विशवकर्मा धीमान समाज के लोगो मे समय की कमी, साधनो कि कमी व आर्थिक तंगी आदि मिटिगों मे भागीदारीता न लेने के कारण हैं
10.श्री विशवकर्मा धीमान समाज के लोगो के द्वारा पी जाने वाली शराब के मख्य कारण बेरोजगारी, शिक्षा का न होना, पारिवारिक कल्ह, पारिवारिक लापरवाही, ऊर्जा का स्त्रोत व युवाओं का बढ़ता शोंक है

 यहां पर हमारा सवाल है कि समाज के बुद्धिजीवि वर्ग द्वारा परिभाषित की गई उपकल्पनाऐं , क्या धीमान समाज के लोगों मे व्यापक है
वर्तमान अध्ययन मे प्राथमिक आकडे प्रश्नपत्र के माध्यम से प्राप्त किए गए हैं। प्रश्नपत्र मे 10 धीमान समाज से सम्बंधित उपकल्पनाओ को परिभषित किया गया हैं। जिसे धीमान समाज के लोगो से नo 5 मापनी पर 1.पूर्णतः सहमत के लिए, 2.केवल सहमत के लिए ,3.औसत के लिए ,4.असहमत के लिए,5. पूर्णतः असहमत के लिए न0 देकर भरवाया गया है। यह प्रश्नपत्र धीमान समाज जीन्द शहर के 110 प्रतिवादियों पर प्रयोग मे लाया गया।
प्राथमिक आकडों का विशलेषण माध्य(Mean), मानक विचलन (S.D), सह सम्बधं व कारक विश्लेषण(Factor Analysis ) जैसी नविनतम सांख्यिकीय तकनिकों का प्रयोग करके किया गया है। माध्य(Mean) का प्रयोग औसत निकालने के लिए व S.D का प्रयोग आकडों के पृथक्करण के लिए किया गया है कारक विश्लेषण के द्वारा आकडों को कम करके उपकल्पनाओं का परिभाषित किया गया है।
 परिणाम व चर्चा
तालिका मे उपकल्पनाओ पर प्रतिवादियों की प्रतिक्रिया को दर्शाया गया है। जिसमें माध्य(Mean) का प्रयोग औसत निकालने के लिए व मानक विचलन (S.D) का प्रयोग आकडों के पृथक्करण के लिए किया गया है प्रतिवादि केवल उपकल्पना न० 2 व 8 को छोड कर अन्य सभी पर सकारात्मक रुप से सहमत है। परन्तु उपकल्पना न० 2 व 8 पर आंछिक रुप से असहमत या औसत हैं यह दर्शाता है कि प्रतिवादि फैसला नही ले पा रहें की वे बच्चों को उच्च शिक्षा दिलवाए व रोजगार में लगाए। इसी तरह ये उपकल्पना न० 8 पर भी नकारात्मक प्रतिक्रिया दर्शातें है। प्रतिवादि सबसे जयादा सहमत उपकल्पना न० 6 पर है। जिसका मानक विचलन भी सबसे कम है यह जनकल्याण के लिए संघ व संगठन के निर्माण से संबन्धित है अतः लोग मजबुत व क्रियाशील संगठन चाहते है। अध्ययन मे स्थयापित किया गया कि समाज के बुद्धिजीवि वर्ग द्वारा परिभाषित की गई उपकल्पनाऐं धीमान समाज के लोगों मे व्यापक है
 परन्तु हमारा सवाल है कि धीमान समाज के विकास को कौन से कारक प्रभावित करते हैं? तथा धीमान समाज मे इनके प्रति कितनी जागृति है?
अतः कारक विश्लेषण के द्वारा उपकल्पनाओं को प्रतिवादियों की प्रतिक्रिया व आपसी सम्बन्ध के आधार पर इक्कठा व कम करके कारकों को परिभाषित किया गया है। इस अध्ययन मे 3 कारक मिले है धीमान समाज के विकास को प्रभावित करने वाले 3 कारक “समाजिक समस्याए”,”समाजिक दृष्टिकोण” व “पारिवारिक समस्या व नैतृत्व गुण” है जो की 55% आंतरिक भेद को दर्शाते है। अर्थात धीमान समाज के मात्र 55% लोग समाज के विकास के प्रति जागरुक हैं 26.4% लोग सामाजिक समस्याओं को, 16.9% लोग सामाजिक दृष्टिकोण को व 11.9% लोग पारिवारिक समस्या व नैतृत्व गुण को सामाजिक विकास को प्रभावित करने का कारण मानते है। निकाले गए कारक समूह की लोडिंग .450-.868 श्नेणी के बीच मे है। के० एम० औ० तथा बार्टलेट टेस्ट के अनुसार कारक (Sampling Adequacy.629, sig .000) महत्व के साथ सार्थक हैं कारकों का विवरण इस प्रकार हैः
पहले कारक का नाम सामाजिक समस्याए है यह दर्शाता है धीमान समाज सामाजिक समस्याऔं को लेकर जागरुक है। अध्ययन के अनुसार धीमान समाज के लोगों के द्वारा मिटिगों मे भागीदारीता न लेने की समस्या सबसे ज्यादा (लोडिंग .868) सामने निकल के आई है नशे की समस्या (लोडिंग .833) व समाज मे बच्चों की पढ़ाई बीच मे छोडने की समस्या (लोडिंग .619) भी अन्य बडी समस्या है। एम० डी० विश्वविद्यालय के प्रो० डा० खजान सिहं के अनुसार लोगों मे नशे की प्रवृति हावी हो रही है उन्होने इसका कारण निराशाजनक सोच, बेरोजगारी, पारिवारिक लापरवाही व ग्लैमर जिंदगी के प्रति आकर्षण के भाव को बताया है। (जींद, जागरण संवाद, 2007) पिछले दिनों सर्व शिक्षा अभियान के तहत कराए गए सर्वेक्षण के आधार पर जींद जिले में 4456 ऐसे बच्चे है, जो स्कूलों में नहीं पढ़ रहे है। उन्होंने दोहराया कि आर्थिक गरीबी अथवा माता-पिता का शिक्षा के प्रति सकारात्मक रुझान न होना भी इसका कारण हो सकता है। (जींद, जागरण संवाद, 2007)
दुसरे कारक मे समाजिक दृष्टिकोण, के नाम यह दर्शाता है धीमान समाज विकास चाहता है यह विकास मे उच्च शिक्षा (लोडिंग .737) को साहयक मानता है। धीमान समाज के कल्याण व विकास के लिए कोई संघ/ समिति/संगठन का होने आवशयकता(लोडिंग .604) पर बल दिया गया है धीमान समाज मे कुठां व आपसी भाई चारे की कमी (लोडिंग .435) के कारण अपना सामजिक विकास नही कर पा रहा है।
पारिवारिक समस्या व नैतृत्व गुण नo 3 कारक है यह दर्शाता है धीमान समाज पारिवारिक समस्याऔं का समाधान (लोडिंग .626) संगठन के माध्यम से चाहता है इसके लिए यह धीमान समाज के संघ/समिति/संगठन पदाधिकारियों का उच्च शिक्षित होना व राजनैतिक भागीदारिता होना (लोडिंग .762) आवशयक मानता है

 अंत मे हम यह स्थयापित करने मे कामयाब हो गये कि धीमान समाज के विकास को कौन से कारण प्रभावित करते हैं ये है सामाजिक समस्याए, सामाजिक दृष्टिकोण तथा पारिवारिक समस्या व नेतृत्व गुण।

 प्रस्ताव
शहरी क्षेत्र मे धीमान समाज के विकास के प्रति मात्र 55% जागृति का पाया जाना चिंता का विषय है गावों में तो स्थिति इस से भी बुरी होगी अतः समाज के वरिष्ठ नेतृत्व व बुध्दिजीवि वर्ग से हमारे प्रस्ताव है की आकडो के अनुसार समाज के विकास के लिए बच्चों को उच्च शिक्षा दिलवाना आवश्यक है। श्री विश्वकर्मा धीमान समाज के नेता व बुध्दिजीवि वर्ग निःस्वार्थ भाव व लग्न से सामाज की समस्याऔ की जानकारी प्राप्त कर उनका समाधान निकालना भी सामज के विकास मे सहायक है। समाज मे बच्चों की पढ़ाई बीच मे छोडने की समस्या का समाधान सामुहिक कार्यकर्मों के माध्यम से किया जा सकता है। नशा, पारिवारिक कल्ह व बेरोजगारी भी बच्चों की शिक्षा को प्रभावित करती है पारिवारिक कल्ह को दुर करने मे सामाज के नेता व बुध्दिजीवि वर्ग की महत्वपूर्ण भूमिका होती है इसलिए इनका उच्च शिक्षित होना व राजनैतिक भागीदारिता होना अवशयक है। धीमान समाज के लोगों के द्वारा मिटिगों मे भागीदारीता न लेने के कारण, सामाज के नेता व बुध्दिजीवि वर्ग इनकी समस्याऔं का समाधान निकालने मे असमर्थ हैं। लोगों के द्वारा मिटिगों मे भागीदारीता न लेने के मुख्य कारण नशे की समस्या है समाज मे व्यापक नशे की समस्या मे समाज सुधार समिति व अन्य जनकल्याण की संस्था बनाकर सुधार लाया जा सकता है।
विश्वकर्मा समाज से आग्रह है। कि इस समाज के कर्मठ और ईमानदार लोगों को खुलकर राजनीति में आना चाहिए ताकि समाज को एक नई दिशा देकर उन्नति की गति तेज की जा सके। इसमें संदेह नही है की समाज के लोगों के पास समय की कमी है, समझ की कमी नही, अगर ये देश का निर्माण कर सकते है तो देश की बागडोर भी बडी कुशलता से सम्भाल सकते है। (अमरजीत सिंह, 2001)
 अध्ययन की परिमियत्ता
इस अध्ययन मे सार्थक किये गए कारकों का भविष्य मे आपसी संबन्ध निकाल कर प्रभाषित किया जा सकता हैं अतः भविष्य मे इन कारणों पर आकडों का fo’ysÔ.k करके सामाजिक व पारिवारिक समस्याओं का समाधान, सामाजिक दृष्टिकोण मे परिवर्तन, तथा नेतृत्व गुणों के विकास से संबन्धित अध्ययन किया जा सकता है। भविष्य मे और बडे सैम्पल मे विभिन्न उपकल्पनाओं के साथ अन्य क्षेत्रों को भी इसमे सम्मलित करके अध्ययन किया जा सकता है
 सदंर्भ-
1. सरला दुबे, (1999) “सामाजिक समस्याऍ”, विवेक प्रकाशन
2. स्वामी कल्याण देव (2000), “Jh विश्वकर्मा मन्दिर कुरुक्षेत्र में मूर्ति स्थापना समारोह”, अंगिरा पुत्र, वर्ष 6,अंक 10, पृष्ट 32.
3. रामशरण युयुत्सु (2000), “नरवाना मे Jh विश्वकर्मा पूजा दिवस समारोह की धूम रही,” अंगिरा पुत्र, वर्ष6,अंक 11, पृष्ट 32
4. अमरजीत सिंह (2001), “समय की मांग है कि Jh विश्वकर्मा समाज राजनीति में आगे आये”,अंगिरा पुत्र, वर्ष7, अंक4, पृष्ट7
5. डा लक्ष्मी निधि (2006), “कहते कहते थका, थका न कोई सुनने वाला”, अंगिरा पुत्र , वर्ष 12, अंक 10, पृष्ट 21
6. दिलबाग सिंह पांचाल (2007), “ नेताओं को पद छोड देने चाहिए”, अंगिरा पुत्र , वर्ष १३, अंक ३, पृष्ट ३२
7. इंद्रजीत शर्मा जगदेव (2007), “कुशल नेतृत्व ही संस्थाओं को अच्छे परिणाम दिला सकता है”, अंगिरा पुत्र , वर्ष 13, अंक 11- 12, पृष्ट 38
8. अमर सिंह धीमान (2007), “संगठन से ही समाज मे एकता संभव”, धीमान जाग्रति, अंक 11, पृष्ट 03
9. प्रदीप गोल्याण (2007), “Jh विश्वकर्मा धीमान समाज -दशा व दिशा”, धीमान जाग्रति, अंक 11, पृष्ट 12
10. प्रेमसागर धीमान (2007), “मजबूत संगठन ही आपके अधिकारों को प्राप्त कर सकता है।“, धीमान जाग्रति, अंक 10, पृष्ट 41
11. बचना राम धीमान (2007), “पिछडेपन का कारण नशा”, अंगिरा पुत्र , वर्ष 13, अंक 11-12, पृष्ट 41
12. माघी राम धीमान (2007), “आओ समाज के लिए चिंतन करे”, अंगिरा पुत्र, वर्ष 13, अंक 10, पृष्ट 24
13. सोमदत धीमान (2007), “सामाजिक उत्थान में संगठन एक मार्ग”, धीमान जाग्रति, अंक 10, पृष्ट 27
14. महेन्द्र सिह पंचाल (2007), “Jh विश्वकर्माZ का ऋणी है मानव समाज”, vafxjk iq=] oÔZ 13] vad&11-12] पृष्ट. 5
15. जींद, जागरण संवाद (2007), “जिले के 4456 बच्चे नहीं जाते स्कूलों में”, दैनिक जागरण, दिसम्बर 17.
16. जींद, जागरण संवाद (2007), “जवां हैं नशे का कारोबार”, दैनिक जागरण, दिसम्बर 11.