सोमवार, 14 अप्रैल 2008

सामाजिक न्याय:- जटिल सामाजिक प्रस्थिति और राजनीति

हायर एजुकेशन के केंद्रीय संस्थानों में 27 फीसदी ओबीसी रिजर्वेशन पर सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ का फैसला यूपीए सरकार को 'ऐतिहासिक' लग सकता है, लेकिन सच तो यह है कि बहस यहीं पर खत्म होने वाली नहीं है। असल मुद्दा यह है कि क्या कोटा सिस्टम वंचित जातियों को आगे लाने का अकेला ओर सबसे अच्छा तरीका है? इस सवाल से हमारा गणतंत्र जूझता रहेगा, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट का फैसला इस बड़ी बहस (जिसे राजनीति ने सामाजिक न्याय के दर्जे से हटाकर एक भेदभावकारी समस्या में बदल डाला है) के सिर्फ एक हिस्से का जवाब पेश करता है। वह हिस्सा यह है कि सरकार की रिजर्वेशन पॉलिसी संविधान के खिलाफ नहीं जाती।
भारतीय समाज इतना जटिल है कि उसे ब्लैक एंड व्हाइट के नज़रिए से देखा नहीं जा सकता. आर्थिक विषमता, दुरूह व जटिल सामाजिक प्रस्थिति और इसका दोहन करती राजनीति. इन सबके मद्देनज़र संविधान आरक्षण के समर्थन में है। संविधान में आरक्षण-व्यवस्था बहुत सोच-समझ कर की गई थी। सदियों की जड़ जाति-व्यवस्था के अन्यायों को दूर करना और घोर विषम समाज को समतामूलक समाज में बदलना इसका लक्ष्य था। भारतीय संविधान के निर्माता आदरणीय भीमराम अम्बेदकर जी ने हिन्दू धर्म की अस्पृश्यता की नीति के कारण बहुत कुछ सहा था, उन्होंने आरक्षण नीति की परिकल्पना की और लागू किया जिसका मूल उद्देश्य अछूत समझी जानेवाली अनुसूचित जाति और आदिम अधिवासी, वनवासी अर्थात् अनुसूचित जनजाति और पिछड़े वर्गों के लोगों को कुछ विशेष सुविधाएँ तथा रियायत देकर सामान्य लोगों के बराबर लाना था। लेकिन इस नीति का मूल उद्देश्य भटक गया है। भारतीय नवजागरण के प्रणेता स्वामी दयानंद सरस्वती, ज्योतिबा फुले, महादेव गोविंद रानाडे, गोपाल कृष्ण गोखले, जानकीनाथ घोषाल आदि से लेकर महात्मा गांधी, डा. भीमराव अंबेडकर और डा. राममनोहर लोहिया तक के नेताओं के विचारों तथा संघर्ष ने इसका स्वरूप निश्चित किया था। लेकिन नेहरू सरकार से लेकर वर्तमान सरकार तक किसी ने भी इसे समझने और ठीक प्रकार से लागू कने की कोशिश नहीं की। इसके विपरीत इसमें एक के बाद एक गांठे डालकर इसे उलझाया जाता रहा।
संविधान के अनुच्छेद 46 के अंतर्गत राज्य की नीति के निदेशक तत्व के रूप में उपबंध किया गया कि “राज्य, जनता के दुर्बल वर्गों के, विशिष्टतया, अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों और पिछड़े वर्गों के शिक्षा और अर्थ संबंधी हितों की विशेष सावधानी से अभिवृद्धि करेगा और सामाजिक अन्याय और सभी प्रकार के शोषण से उनकी संरक्षा करेगा।” सरकार ने अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के उत्थान और उनको समानता के स्तर पर लाने के लिए कई आवश्यक कदम तुरंत उठा लिए और यह सिलसिला अब भी जारी है। अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए सरकारी सेवाओं में सीधी भर्ती के मामले में आरक्षण 21 सितम्बर, 1947 से और पदोन्नति के मामले में आरक्षण 4 जनवरी, 1957 से ही लागू है। लेकिन आरक्षण के लाभ से सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े अन्य वर्गों के बहुसंख्यक लोगों को वंचित ही रखा गया, क्योंकि कई दशकों तक इन पिछड़े वर्गों की स्पष्ट पहचान ही स्थापित नहीं हो सकी। हालाँकि संविधान में इसके लिए स्पष्ट उपबंध मौजूद रहे हैं।
अनुच्छेद 340 का अनुपालन करते हुए पहली बार राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद ने 29 जनवरी, 1953 को काका कालेलकर की अध्यक्षता में पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन किया। इस आयोग ने अपनी सिफारिशें 30 मार्च, 1955 को सरकार को सौंप दी। इस आयोग ने सभी महिलाओं को पिछड़ी जाति के अंतर्गत शामिल किए जाने और सभी तकनीकी एवं व्यावसायिक शिक्षा संस्थानों में पिछड़े वर्गों के लिए 70% सीटों के आरक्षण की सिफारिश की थी। इसके अलावा सभी सरकारी सेवाओं और स्थानीय निकायों में क्लास I पदों के लिए 25%, क्लास II पदों के लिए 33.5% तथा क्लास III और IV पदों के लिए 40% स्थान पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षित करने की सिफारिश की गई थी। यदि भारतीय समाज में पिछड़े वर्गों की जनसंख्या के आधार पर शिक्षा और सेवा में उनको वास्तविक प्रतिनिधित्व देने की बात की जाए तो वे सिफारिशें बहुत हद तक न्यायसंगत थीं।
1979 में फिर यह मामला उठा और मंडल कमीशन बनाया गया. देश की राजनीति में बहुत बड़ी तब्दीलियाँ लाने की संभावनाएं पैदा की थीं क्योंकि मंडल कमीशन की 12 सिफारिशें थीं. एक सिफारिश थी कि नौकरियों में आरक्षण दिया जाए. लेकिन बाक़ी 11 सिफारिशें बुनियादी तब्दीली की थी. उसमें कहा गया था कि भूमि सुधार होना चाहिए, शिक्षा व्यवस्था बदलनी चाहिए और प्रशासन को बदलना चाहिए. जब रिपोर्ट मान ली गई, तो समझा गया कि समूची रिपोर्ट मान ली जाएगी और उसको चुनिंदा तरीके से कार्यान्वित किया जाएगा. लेकिन दुर्भाग्य है कि उसके मात्र एक सुझाव जो नौकरियों में आरक्षण की थी, उसी पर ज़ोर दिया गया. नतीजा ये हुआ कि वो सब क्राँतिकारी संभावनाएँ थीं वह सब बुझ गई.
जैसा कि मंडल मामले में हुआ, इस बार भी अदालत ने बीच का रास्ता चुना है। उसने कोटे की इजाजत देते हुए क्रीमी लेयर को बाहर रखने की शर्त लगा दी है। हालांकि यह याद करना भी जरूरी है कि न तो सरकार ने क्रीमी लेयर की शर्त को कभी पसंद किया है और न ही इस व्यवस्था के तहत जातियों की लिस्ट में समय-समय पर सुधार की जरूरत को गंभीरता से लिया है। कुल मिलाकर सरकार का रवैया ऐसी बंदिश को लेकर बगावती रहा है और इसलिए हमारे यहां नई जातियां तो रिजर्वेशन की लिस्ट में घुसती रहती हैं, लेकिन किसी को इस आधार पर बाहर का रास्ता नहीं दिखाया जाता कि उसके लिए कोटे की जरूरत खत्म हो चुकी है।

1950 में पिछड़े वर्ग में कुल 1373 जातियां थीं। पहला पिछड़ा वर्ग आयोग 1955 में बना जिसके मुताबिक पिछड़ी जातियों की संख्या 2399 थी। मंडल कमीशन के मुताबिक वर्ष 1980 में 3743 जातियां पिछड़े वर्ग की सूची में थीं। राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग की वर्ष 2006 की रिपोर्ट के मुताबिक 5013 जातियां पिछड़ी हैं। अतः लगातार पिछड़ी जातियों की संख्या बढ़ती जा रही है
सवाल यह है कि पिछले डेढ़ दशकों से चल रही मंडलवादी आरक्षण की राजनीति का हासिल अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए क्या रहा है? जबकि इस वर्ग का एक बड़ा हिस्सा उत्तर भारत के गांवों में सामाजिक पिछड़ापन व भयंकर गरीबी झेल रहा है। मंडल रिपोर्ट के अनुसार ओबीसी की अनुमानित आबादी 52 प्रतिशत है लेकिन सरकारी नौकरियों में उन्हें हम महज 4.51 प्रतिशत आरक्षण दे पाए हैं। 22.5 प्रतिशत आबादी वाली अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति का 1980 (पिछड़ा वर्ग आयोग रिपोर्ट, 1980, भाग-I, पृष्ट 42) में सरकारी नौकरियों में प्रतिशत 18.71 था। जबकि 52.2 प्रतिशत आबादी वाली ओबीसी का प्रतिशत 12.55 था ।

आरक्षण की व्यवस्था पूरे पिछड़े वर्गों की सामाजिक स्थिति को बदलने का आधार न तो थी और न हो सकती है. आरक्षण की व्यवस्था ग़रीबी की समस्या का समाधान भी न तो कभी थी न बन सकती है. कुछ सरकारी महकमों और शैक्षणिक संस्थाओं में आरक्षण की व्यवस्था इस उद्देश्य से बनाई गई थी कि समाज में, राजनीति में और आधुनिक अर्थव्यवस्था के जो शीर्ष पद हैं, उनमें जो सत्ता का केंद्र है, वहाँ दलित समाज और पिछड़े वर्गों की एक न्यूनतम उपस्थिति बन सके.इस उद्देश्य को लेकर चलाई गई यह व्यवस्था इस न्यूनतम उद्देश्य में सफल रही है


आरक्षण संबंधी समस्याएं इसलिए अब तक बनी हुई हैं क्योंकि हमने संविधान की आरक्षण व्यवस्था को लागू करने के लिए शुरू से ही वैज्ञानिक प्रक्रिया का अनुसरण नहीं किया। इस व्यवस्था को सही ढंग से लागू करने के लिए जरूरी था कि जातियों की सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक स्थिति के आंकड़ें जमा किए जाएं और उनके आधार पर जातियों का अगड़े, पिछड़े, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति आदि श्रेणियों में वर्गीकरण किया जाए। प्रत्येक जनगणना के साथ ये आंकड़ें जमा किए जाएं और हर दस साल बाद आंकड़ों के विश्लेषण से पता लगाया जाए कि किन जातियों को संविधान के अनुच्छेत 16(4) के अनुसार नौकरियों आदि में ‘पर्याप्त प्रतिनिधित्व’ मिल गया है और जिन्हें मिल गया हो उन्हें आरक्षण की परिधि से बाहर किया जाए। इस प्रकार उत्तरोत्तर निचली जातियों को आरक्षण की सुविधा मिलती जाती। कालांतर में सभी जातियों को ‘पर्याप्त प्रतिनिधित्व’ मिल जाता तथा आरक्षण व्यवस्था स्वत: समाप्त हो जाती। लेकिन हमारी सरकारें नेहरू सरकार से लेकर वर्तमान सरकार तक जातियों के वैज्ञानिक आंकड़े जमा करने से घबराती रहीं, इसलिए कि ये आंकड़े सामने आए तो जातिगत शोषण की नंगी तस्वीर सामने आ जाएगी। इससे पता चलेगा कि जिन जातियों का कुल जनसंख्या में अनुपात 15-16 प्रतिशत हैं, वे 90-95 प्रतिशत पदों पर कब्जा जमाए बैठी हैं।

अंतिम बार जातियों के आंकड़े 1931 की जनगणना में इकट्ठे किए गए थे। उसके बाद ये आंकड़े जान-बूझ कर जमा नहीं किए गए और बिना वैज्ञानिक आंकड़ों के जातियों की शिनाख्त करने, उनका श्रेणीकरण करने तथा आरक्षण कोटा निर्धारित करने के सारे काम अनाप-शनाप ढंग से हुए। जनगणना के आंकड़ों से पहले क्रीमी लेयर लागू करना अवैज्ञानिक होगा और इसके लिए राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण या किसी और प्रकार के सर्वेक्षण के आंकड़े भी अधूरे ही होंगे। चूंकि जाति सभी राजनीतिक पार्टियों का निहित स्वार्थ बन गई हैं, कोई भी सरकार यह काम करने को तैयार नहीं होगी। अत: उच्चतम न्यायालय को ही इसका स्पष्ट निर्देश देना पड़ेगा। जैसे अमेरिका में रंग-भेद को समाप्त करने का काम वहां के उच्चतम न्यायालय को मुख्य न्यायाधीश अर्ल वारेन के प्रसिद्ध निर्णय के द्वारा करना पड़ा। वैसे ही हमारे उच्चतम न्यायालय को करना पड़ेगा। समस्याओं का अंत तभी होगा जब संविधान की आरक्षण व्यवस्था को पीछे कहे गए अनुसार वैज्ञानिक तरीके से लागू किया जाएगा और उच्चतम न्यायालय को आरक्षणों की 50 प्रतिशत सीमा को भी हटाना पड़ेगा और यह सीमा अद्विज जातियों की जनसंख्या को देखते हुए ‘पर्याप्त प्रतिनिधित्व’ की आवश्यकता के अनुसार निर्धारित करनी पडे़गी



प्रदीप गोल्याण, Date:- 11. Apr 2008
विश्लेषक एवं लेखक
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