बुधवार, 23 अप्रैल 2008

शिक्षा , मलाईदार परतें और गैर आरक्षित क्रीमी लेयर


उच्च शिक्षण संस्थानों में आरक्षण लागू करने के विवाद में करीब दो साल से बैकफुट पर खड़ी कांग्रेस सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद जरूर राहत महसूस कर रही है। मगर अब क्रीमीलेयर की फांस से निकलना पार्टी और सरकार के लिए नई चुनौती है। सुप्रीमकोर्ट के फैसले के बाद उच्च शिक्षण संस्थानों में पिछड़ों को आरक्षण लागू कराने में जुटी सरकार फिलहाल क्रीमी लेयर को आरक्षण के दायरे से बाहर करने के लिए जल्द ही कानून में संशोधन करेगी। आईआईएम और आईआईटी जैसे हाईप्रोफाइल उच्च शिक्षण संस्थानों में दाखिला प्रक्रिया नजदीक होने के चलते राजनीतिक मामलों की कैबिनेट कमेटी ने आरक्षण कानून में संशोधन की मंजूरी दे दी है। अब जल्द ही इसके लिए संसद में विधेयक लाया जाएगा।
सुप्रीम कोर्ट ने पहली बार 1992 में क्रीमीलेयर शब्द का इस्तेमाल किया था। संविधान के अनुच्छेद 15-16 में क्रीमी लेयर का प्रावधान नहीं है। इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार के फैसले में क्रीमी लेयर की बात कही गई थी। इसके बाद नौकरियों में क्रीमी लेयर को लागू कर दिया गया, लेकिन शिक्षण संस्थाओं में इसको लेकर कुछ भी नहीं हुआ। क्रीमीलेयर में राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के न्यायधीशों, यूपीएससी के चेयरमैन समेत राज्य व केंद्र सरकार के ए और बी वर्ग कर्मचारी शामिल हैं। इसके साथ ही, जिनकी आय 2.5 लाख रुपये सालाना है, उन्हें भी क्रीमीलेयर में शामिल किया गया है। क्रीमीलेयर में शामिल लोगों के बच्चों को आरक्षण का लाभ नहीं मिलेगा।
किसी भी देश की सबसे बड़ी पूंजी या संसाधन वहां के लोग होते हैं। इसीलिए मानव संसाधन का सर्वागीण विकास किसी भी देश के विकास की प्रक्रिया का सबसे महत्वपूर्ण घटक माना जाता है और शिक्षा के विभिन्न औपचारिक-अनौपचारिक रूप इस प्रक्रिया का मूल आधार होते हैं। ये आधार जितने सुदृढ़, जितने परिपूर्ण और जितने समसामयिक होते हैं, व्यक्ति या मानव संसाधन का विकास भी उतना ही सर्वागीण होता है।
नॉलेज इकॉनॉमी में शिक्षा का महत्व चमत्कारिक रूप से बढ़ा है। आईटी से लेकर मैनेजमेंट और हॉस्पिटालिटी से लेकर डिजाइनिंग, एनिमेशन और ऐसे ही तमाम स्ट्रीम की अच्छी पढ़ाई करने वाले आज सबसे तेजी से अमीर बन रहे हैं। इस रेस में पिछड़े युवा तेजी से पिछड़ रहे हैं। उत्तर प्रदेश के नोएडा और हरियाणा के गुड़गांव के हरियाणा में आपको पढ़े लिखे लोगों की समृद्धि और जमीन बेचकर करोड़ों कमाने वालों की लाइफस्टाइल का फर्क साफ नजर आएगा। ऐसे भी वाकए हैं जब जमीन बेचकर लाखों रुपए कमाने वाला कोई शख्स किसी एक्जिक्यूटिव की कार चला रहा है। अगली पीढ़ी तक ये फासला और बढ़ेगा।
शिक्षा व्यवस्था समाज के मूल्य , विषमताओं व सत्ता सन्तुलन को बरकरार रखने का एक औजार है । हमारी तालीम में एक छलनी-करण की प्रक्रिया अन्तर्निहित है । लगातार छाँटते जाना । मलाई बनाते हुए, छाँटते जाना। उनको बचाए रखना जो व्यवस्था को टिकाए रखने के औजार बनने ‘लायक’ हों । इस छँटनी-छलनी वाली तालीम का स्वरूप बदले इसलिए एक नारा युवा आन्दोलन में चला था - ‘खुला दाखिला ,सस्ती शिक्षा । लोकतंत्र की यही परीक्षा’ यानि जो भी पिछली परीक्षा पास कर चुका हो और आगे भी पढ़ना चाहता हो , उसे यह मौका मिले। 1977 में यही नारा लगा कर हमारे विश्वविद्यालय में ‘खुला दाखिला’ हुआ था । इस नारे को मानने वाले उच्च शिक्षा में आरक्षण के विरोधी थे और नौकरियों में विशेष अवसर के पक्षधर । इस नारे की विफलता के कारण शिक्षा में आरक्षण की आवश्यकता आन पड़ी । सस्ती शिक्षा का अधिकार सही है लेकिन काफी नहीं है समता के सही माने बनाने की ज़रूरत प्राथमिक स्तर से है लेकिन विवाद स्नातक, स्नातकोत्तर स्तर पर है
शायद इसी के चलते विंध्याचल से दक्षिण के लगभग हर पिछड़ा नेता ने स्कूल कॉलेज से लेकर यूनिवर्सिटी खोलने में दिलचस्पी ली थी और ये सिलसिला अब भी जारी है। लेकिन उत्तर भारत के ज्यादातर पिछड़ा नेता अपने आचरण में शिक्षा विरोधी साबित हुए हैं। उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, आदि राज्यों के अच्छे शिक्षा संस्थान पिछड़ा उभार के इसी दौर में बर्बाद हो गए। इन नेताओं से नए शिक्षा संस्थान बनाने और चलाने की तो आप कल्पना भी नहीं कर सकते। शिक्षा को लेकर उत्तर भारत के पिछड़े नेताओं में एक अजीब सी वितृष्णा आपको साफ नजर आएगी।
सवाल यह है कि आरक्षित कहाँ से आता है, और क्यों है सरकार ने जिन लोगों को फायेदा दिया है उसमें कमज़ोर तबका इसका लाभ ले नही पायेगा क्यूंकि हमारे देश में गरीब बच्चा अपना समय पैसे कमाने में लगाता है शिक्षा लेने के पैसे दीजिये तो उसे पूरा परिवार चलाने के लिए प्रयोग किया जाता है। छात्रवृत्ति मिलती है जिसका हिस्सा दफ्तर के बाबू को देना पड़ता है। केवल आरक्षण मिलने भर से जो इन बड़े बड़े संस्थानों के खर्चे हैं वो कम नही होंगे और उन गरीब घरों के बच्चे जो कक्षा 10 से आगे बढ़ने के बारे में सोचते ही नही और सोचते भी हैं तो उन्हें सुविधाएं या कहें कि पैसे ही नही मिलते कि अच्छी जगह जाकर पढाई कर सकें और मोटी मोटी फीस का बोझ उठा सकें। हाँ जो लोग उठा सकते हैं उन्हें इसमें शामिल नही किया गए क्यूंकि वो इतने साधन संपन्न हैं कि उन्हें किसी आरक्षण की ज़रूरत नही है। यानी वो क्रीमीलेयर में आते हैं। अब सवाल ये उठता है कि ये आरक्षण है तो किसके लिए?
साल 2004-05 के नेशनल सैंपल सर्वे (याद रखें, ये सर्वे है जनगणना नहीं) के मुताबिक देश की आबादी में ओबीसी का हिस्सा सबसे ज्यादा 40.23%, एससी का हिस्सा 19.75%, एसटी का हिस्सा 8.61% और सवर्ण जातियों का हिस्सा 31.41% है। औसत मासिक उपभोग के आधार पर देखें तो 24.88% ओबीसी सबसे गरीब हैं, जबकि भूमि के मालिकाने के आधार पर देखें तो जहां 23.22% ओबीसी सबसे गरीबों में शुमार हैं सवर्णों में सबसे गरीबों की संख्या 13.09% है। इसी आधार पर 20.07% ओबीसी सबसे अमीर है, जबकि सवर्णों में सबसे अमीरों की संख्या 42.29% है। जाहिर है सवर्ण अमीरों का अनुपात सवर्ण ओबीसी से लगभग दोगुना है।
अगर ओबीसी की क्रीमी लेयर को 27 फीसदी आरक्षण से बाहर नहीं किया जाता तो इस तबके के 20.07% सबसे अमीर ही सारी मलाई खा जाएंगे क्योंकि इसी हिस्से में 73.69% डिप्लोमाधारक, 69.81% ग्रेजुएट और 74.01% पोस्ट-ग्रेजुएट है। ओबीसी का बाकी लगभग 80% हिस्सा उच्च शिक्षा में आरक्षण के लाभ से महरूम रह जाएगा क्योंकि इनमें ग्रेजुएशन तक पहुंचनेवाले लोग 3.88% से 17.02% के बीच हैं।
केंद्र सरकार अगर 80 फीसदी ओबीसी को उच्च शिक्षा का लाभ दिलाना चाहती है तो वह कानून में संशोधन जोड़कर क्रीमी लेयर को आसानी से इससे बाहर कर सकती है। वह सरकारी नौकरियों में ऐसा करती भी है और उसके पास क्रीमी लेयर की पूरी परिभाषा है।सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्री मीरा कुमार के अनुसार क्रीमी लेयर को फिर से परिभाषित करने और सालाना आय बढ़ाने आदि के लिए उनका मंत्रालय राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग से बीते साल ही समीक्षा और जरूरी सुझाव देने की सिफारिश कर चुका है।
प्रगतिशील बौद्धिकता और सामाजिक न्याय के आवरण को ओढ़े रखने की कोशिश करने वालों इन पत्रकारों और ‘विशेषज्ञों’ की ओर से अकसर आर्थिक आधार पर आरक्षण दिए जाने की वकालत की जाती है। वे दरअसल भलीभाँति जानते हैं कि परिश्रम, शिल्प-कौशल और अध्यवसाय से संपन्न पिछड़ा वर्ग परिस्थिति की तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद अपनी आर्थिक स्थिति को लगातार मजबूत करने के उद्यम में लगा रहता है, भले ही उसके लिए शिक्षा और सत्ता के दरवाजे बंद कर दिए गए हों। यदि आरक्षण का आधार आर्थिक हो और उसके लिए राजस्व अधिकारियों द्वारा जारी आय प्रमाण पत्र ही मानदंड हो तो अन्य पिछड़े वर्ग के लोग शायद ही आरक्षण का लाभ उठा पाएँ, क्योंकि समाज और सत्ता में पहले से प्रभावी ऊँची जाति के लोग पिछड़ी जाति के व्यक्तियों को अपेक्षित ओबीसी प्रमाण पत्र ही जारी नहीं होने देंगे। पूरे देश भर में राजस्व अधिकारियों द्वारा ओबीसी प्रमाण पत्र जारी किए जाने की प्रक्रिया में जो भ्रष्टाचार और लालफीताशाही है उसको देखते हुए आय प्रमाण पत्र को आरक्षण का आधार बनाया जाना न्यायोचित भी नहीं है। दूसरी बात यह कि आरक्षण का मूल प्रयोजन पिछड़े वर्गों के शैक्षिक पिछड़ेपन को दूर करना और सत्ता में उनकी भागीदारी को जनसंख्या में उनके अनुपात के स्तर तक बढ़ाना है, ताकि उन्हें संविधान में घोषित प्रतिष्ठा और अवसर की समानता हासिल हो सके। हमारे समाज में प्रतिष्ठा और अवसर की समानता शिक्षा और सत्ता के स्तर के आधार पर तय होती है, न कि आर्थिक आधार पर।
लेकिन हम कभी यह मूल्यांकन नहीं करते कि आरक्षण का फायदा क्या हुआ? क्या यह नीति अन्य सरकारी नीतियों की तरह हैं जिसका कोई फायदा नहीं? हम पहले यह क्यों नहीं देखते कि आरक्षण से समाज को क्या लाभ हुआ? दुनिया में आरक्षण जैसी कारगर संवैधानिक नीति नहीं बनी है। सिर्फ पचास साल में इसकी वजह से लाखों दलित इस हालत में पहुंच गए जिन्हें पांच हज़ार साल से किसी लायक नहीं छोड़ा गया था। युगों का पिछड़ापन और आधी सदी का विकास सिर्फ एक नीति से हुआ है। आरक्षण एक आश्चर्य है।


प्रदीप गोल्याण, Date:- 18. Apr 2008
विश्लेषक एवं लेखक
E-mail: pkdhim@gmail.com
Contact No.- 09315821807

बुधवार, 16 अप्रैल 2008

उदारीकरण , निजिकरण व आरक्षण

यूपीए सरकार के गठन के समय न्यूनतम साझा कार्यक्रम बना था जिसमें निजी क्षेत्र में आरक्षण देने की बात कही गयी थी। इसके अतिरिक्त खाली पदों पर भर्ती एवं आरक्षण कानून बनाने की बात भी इसमें कही गयी थी, परन्तु इस दिशा में भी अभी कुछ नहीं हो सका है।
कांग्रेस पार्टी ने आर्थिक ‘सुधारों’ और निजीकरण के द्वारा भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में प्रतिस्पर्धा के जरिए विकास के सिद्धांत को स्थापित करने की रणनीति अपनाई। लेकिन उसे मालूम है कि इससे चुनाव जीते नहीं जा सकते, इसलिए उसे भी मजबूर होकर शैक्षिक संस्थानों में आरक्षण और निजी क्षेत्रों में आरक्षण के मुद्दे को अपनाना पड़ा। "निजी क्षेत्र में कमज़ोर वर्ग के लिए आरक्षण प्रदान करने के लिए, कांग्रेस पार्टी के चुनाव घोषणा पत्र में इसके स्पष्ट ज़िक्र के बावजूद कोई विधेयक नहीं लाया गया है." उद्योग समूह इस विषय में स्वैच्छिक कार्रवाई के पक्ष में हैं. लेकिन क्या वे यह बता सकते हैं कि उन्होंने कमज़ोर वर्गों के लिए अब तक क्या किया है? निजी क्षेत्र में कितने दलित काम कर रहे हैं? उद्योग समूह इस बारे में आँकड़े क्यों नहीं देते? हमारी जानकारी के मुताबिक ये संख्या नगण्य है."
अनुसूचित जाति/जन जाति संगठनों के अखिल भारतीय परिसंघ के आंदोलन के भारी दबाव के कारण केन्द्र सरकार ने उघोगपतियों से वार्ता करना शुरू किया। इसके लिए मंत्रियों की एक कमेटी का भी गठन किया, जिसने सिफारिश की कि निजी क्षेत्र में दलितों को आरक्षण देने के लिए संविधान में संशोधन की आवश्यकता है। कई बार उघोगपतियों के संगठनों ने सरकार से बातचीत भी की और आश्वासन दिया कि वे अपनी सामाजिक जिम्मेदारी निभाने के लिए तैयार हैं। उन्होंने कोटा लादने का जमकर विरोध किया और उसके बदले में कहा कि वे शिक्षा एवं प्रशिक्षण के स्तर पर दलितों की पूरी सहायता के लिए तैयार हैं। इसके लिए कन्फेडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्रीज (सीआईआई) ने जे.जे. ईरानी के नेतृत्व में एक समिति का गठन किया, जिसने शिक्षा और प्रशिक्षण के क्षेत्र में सहयोग करने की सिफारिश की। सरकार से जब जानकारी मांगी गयी कि अभी तक निजी क्षेत्र में दलितोत्थान के लिए क्या–क्या कार्य किए गए तो उसका जबाब आया ही नहीं। आए कैसे, उघोगपतियों को तो समय नष्ट करना है। यदि इनका इरादा नेक होता तो आरक्षण कोटे का विरोध क्यों करते?
Dec. 19,2003 को SC/ST के सदस्यों को सम्बोधित करते हुए अटळ बिहारी वाजपेयी ने भी निजि क्षेत्र में आरक्षण का पक्ष लिया था । इसी के साथ ही 2004 के चुनाव घोषणा पत्र मे कांग्रेस व भारतिय जनता पार्टी ने निजि क्षेत्र में SC/ST व OBC के लिए कल्याणकारी कार्य करने की घोषणा की थी। वामपंथी पार्टियाँ आर्थिक न्याय की राजनीति पर जोर दिए जाने की वकालत करती रही, लेकिन सत्ता से जुड़े रहने के बावजूद ठोस धरातल पर वे इस दिशा में कुछ भी कारगर प्रयास नहीं कर सकीं। जो चरमपंथी वामपंथी पार्टियाँ थी उनलोगों ने नक्सलवाद के रूप में आर्थिक न्याय को हासिल करने के लिए एक ऐसी राह पकड़ ली, जो लोकतंत्र और संविधान के ही विपरीत दिशा में काम करता है।
आरक्षण के पक्ष और विपक्ष मे जो भी दलील दी जा रही हो लेकिन इसके समर्थन और विरोध मे मे जो भी है क्या उन्होने इस नजरिये पर ध्यान दिया है कि, भूमंडलीकरण कि वजह से आरक्षण का क्या रूप बचेगा? भूमंडलीकरण के इस दौर मे आरक्षण किस तरह सफल हो सकता है? अभी तो सब भूमंडलीकरण कि वास्त्विक्ताओ पर कम और मनोगत भावनाओ और पुर्वाग्रहो ज्यादा हो हल्ला कर रहे है। आईये थोडा पिछे जाकर आरक्षण कि वास्तविकता पर नजर डालते है। आजादी के बाद संविधान ने " सामाजिक स्तर पर कमजोर वर्गों विशेषकर दलितो और आदिवासियो के लिये प्रतिबद्धता व्यक्त कि थी। संविधान मे इसके लिये विशेष प्रावधान किये गए। इसके बाद मंडल कमीशन के माध्यम से ओबीसी को आरक्षण दिया गया। 1990 के दशक मे आरक्षण कि जो राजनीती शुरू हुई उसने देश कि दशा और दिशा दोनो बदल दी। लेकिन इसे वक्त एअक और परिवर्तन हुआ जिसकी आहट सब लोगो के कान तक नही पहुची। यही वो दौर था जब नरसिम्हा राव सरकार ने " वॉशिंग्टन आम राय " पर आधारित भूमंडलीकरण को अपनाया। गौर करने कि बात ये है कि किसी भी दल ने इसका विरोध नही किया। " वॉशिंग्टन आम राय " के दस सूत्री कार्यक्रम के आलोक मे मनमोहन सिंह ने आर्थिक सुधार शुरू किया। इन सुधारो का बहुत प्रभाव पड़ा। सरकारी क्षेत्र मे उपलब्ध नौकरियों कि संख्या मे कमी आयी।
1991 मे उदारीकरण व निजिकरण के साथ ही निजि क्षेत्र को ज्यादा सरकारी साहयता मिली तथा सरकार ने भारी उधोगों का विनिवेश भी कर दिया। इस से रोजगार के अवसर सरकारी क्षेत्र से निकल कर निजि क्षेत्र मे चले गऐ । NCSC की रिर्पोट के अनुसार ऐकले SC 1,13,430 नौकरियौं के अवसर 1992-97 तक खो चुका है।
निजि क्षेत्र SC/ST व OBC के आरक्षण की मांग की मांग को पचा नही पा रहा है। यह SC/ST व OBC के लिए आरक्षण को मना कर रहा है। Sept.21, 2004 को राहुल बजाज, अध्यक्ष बजाज औटो ने अपने The Times of India, के लेख मे कहा की निजि क्षेत्र SC/ST को 1/3 रोजगार के अवसर प्रदान कर रहा है। तथा इस से निजि क्षेत्र मे योगयता के आधार पर बनने वाली विरयता सुची को हानी पहुच रही है। इसी तरह सुनील मुंजाल के अनुसार निजि क्षेत्र में आरक्षण के लिए व्यक्तिगत योगयता, उत्पाद गुणवंता व विशव प्रतिस्पर्धा के मामले मे समझोता नही कर सकते है। June 23, 2004 मे ईनफोसिस के अध्यक्ष नारायण मुरठी ने माना है कि हम आरक्षण के खिलाफ नही है परन्तु यह आर्थिक आधार पर होना चाहीए न की जातिय आधार पर । प्रमुख उधोग चैंबर CII के अध्यक्ष सुनील मितल ने कहा कि दलितों को नोकरियां दिलाने का काम जबरन नही हो सकता । स्वैच्छिक तरिका ही एकमात्र उपाय है। उल्लेखनीय है कि विभिन्न उधोग संगठनों के प्रतिनिधियों ने इस मुद्दे पर मुख्य सचिव टी के नायर के साथ बैठक की थी
एसोचैम के अध्यक्ष वेणुगोपाल एन.धूत ने कहा, “हम निजी क्षेत्र में आरक्षण का समर्थन कर सकते हैं बशर्ते उसे हमारे सुझावों के मुताबिक लागू किया जाए।” उन्होंने कहा कि निजी क्षेत्र में आरक्षण प्रणाली लागू करने के वास्ते खुद को तैयार करने के लिए उद्योगों को अभी तीन-चार साल का वक्त चाहिए। उन्होंने कहा, “उद्योगों को आरक्षण व्यवस्था को लागू करने में अभी समय लगेगा और यह बेहतर होगा कि केन्द्र अथवा राज्य सरकार इसे कानून बनाकर क्रियान्वित करने के लिए दबाव न बनाएं।” गौरतलब है कि पिछले वर्ष अगस्त माह में राज्य की मायावती सरकार ने नये आरक्षण सिध्दान्तों के अनुसार, ''सभी निजी निवेशकों को राज्य में औद्योगिक इकाई स्थापित करने के लिए रियायत प्रदान की जाएंगी लेकिन उन्हें अपने यहां नौकरी में अनुसूचित जाति को 10 प्रतिशत तथा अन्य पिछड़ा वर्ग को 10 प्रतिशत आरक्षण देना होगा। इसमें पिछड़े धार्मिक अल्पसंख्यक भी शामिल होंगे। निजी क्षेत्रों को अन्य 10 प्रतिशत आरक्षण उच्च जातियों में आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को भी देनी होगी।'' गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश, भारत का पहला राज्य है जहां निजी क्षेत्र में आरक्षण नीति लागू है।
निजी क्षेत्र में आरक्षण देने के लिए गठित समन्वय समिति की इस दूसरी बैठक में उद्योग जगत ने आरक्षण मसले पर संसद के किसी क़ानून की बजाय इस पर उद्योग जगत के 'एफ़ेरमेटिव एक्शन' यानि स्वैच्छिक कार्रवाई की वकालत की है. निजी क्षेत्र में आरक्षण का विरोध क्यों जबकि अमेरिका में स्वैच्छिक पहल (affirmative actions) के ज़रिए चालीस साल पहले ही निजी कंपनियों ने अपने यहां कई स्तरों पर आरक्षण का प्रावधान शुरू किया. 1970 के दशक में आईबीएम ने अपने यहां अश्वेतों को आरक्षण देना शुरू किया., 1982 में अमेरिका में एक सर्वे में खुलासा हुआ कि मीडिया में सिर्फ़ दो फ़ीसद अफ़्रो-अमेरिकन हैं. यहां अख़बार और चैनल मालिकों ने अफ़रमेटिव एक्शन लेते हुए अल्पसंख्यकों को न सिर्फ़ ट्रेंड किया बल्कि नौकरियां भी दीं. नतीजा यह हुआ कि मीडिया में एफ़्रो-अमेरिकन की तादाद सात फ़ीसद हुई. कई मामलों हैं जब अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण के पक्ष में फ़ैसला सुनाया है. क्या भारत में इस तरह के एक्शन (बिना क़ानून लाए) निजी कंपनियां ले रही है?
देश के दो बड़े निजी बैंक, निजी क्षेत्र में आरक्षण के मामले में एक नया रास्ता दिखा रहे हैं। आईसीआईसीआई और एचडीएफसी बैंक ने अपने कर्मचारियों में इस बात का हिसाब लगाना शुरू कर दिया है कि ‘अफर्मेटिव एक्शन’ के पैमाने पर वो कहां खड़े होते हैं। आईसीआईसीआई बैंक में काम करने वाले लोगों में से कौन किस जाति का है? कितने लोग अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति या अन्य पिछड़ा वर्ग से आते हैं? बैंक का प्रबंधन खुद यह सवाल पूछ रहा है। उसने अपने सारे कर्मचारियों से इसका जवाब मांगा है।खबर है कि ऐसी गिनती एचडीएफसी बैंक में भी हो रही है, लेकिन वो इस पर कुछ भी कहने को तैयार नहीं है। लेकिन आईसीआईसीआई बैंक का कहना है कि यह काम आरक्षण का कोटा भरने के लिए नहीं किया जा रहा है। वो यह जांच करना चाहते हैं कि जब बिना जाति पूछे उन्होंने लोगों को नौकरी दी तो सभी लोगों को बराबर का मौका मिला या नहीं।
निजि क्षेत्र का कहना है की आरक्षण निति के साथ ही उनका उत्पाद खर्च बढ़ता है जिसके कारण उनकी विशव बजार मे प्रतिस्पर्धा शक्ती कम होती है तथा इसका असर उत्पाद पर पडता है। जबकी उदारीकरण, आर्थिक ‘सुधारों’ और निजीकरण के साथ ही निजि क्षेत्र को ज्यादा सरकारी साहयता व अन्य लाभ भी मिल रहे है। इसके साथ-साथ जोब सिक्योर्टी व पदोन्नती तथा आरक्षण के अन्य फायदों पर भी चर्चा करने की आवशयकता है,लेकिन बात यहीं खत्म नहीं होती है। सिर्फ बैंक की प्रणाली सही होने से काम नहीं चलेगा। समाज में सभी तबकों और जातियों के लोगों को यह मौका मिलना जरुरी है कि वे अपनी काबिलियत के हिसाब से प्रशिक्षण हासिल कर सकें और चुनाव प्रक्रिया में बराबरी से शामिल हो सकें

प्रदीप गोल्याण, Date:- 16. Apr 2008
विश्लेषक एवं लेखक
E-mail: pkdhim@gmail.com
Contact No.- 09315821807

सामाजिक न्याय के लिए ज़्यादा सुसंगत-सुदृढ़ प्रतिनिधियों की जरूरत

किसी भी देश की सबसे बड़ी पूंजी या संसाधन वहां के लोग होते हैं। इसीलिए मानव संसाधन का सर्वागीण विकास किसी भी देश के विकास की प्रक्रिया का सबसे महत्वपूर्ण घटक माना जाता है और शिक्षा के विभिन्न औपचारिक-अनौपचारिक रूप इस प्रक्रिया का मूल आधार होते हैं। ये आधार जितने सुदृढ़, जितने परिपूर्ण और जितने समसामयिक होते हैं, व्यक्ति या मानव संसाधन का विकास भी उतना ही सर्वागीण होता है।
नॉलेज इकॉनॉमी में शिक्षा का महत्व चमत्कारिक रूप से बढ़ा है। आईटी से लेकर मैनेजमेंट और हॉस्पिटालिटी से लेकर डिजाइनिंग, एनिमेशन और ऐसे ही तमाम स्ट्रीम की अच्छी पढ़ाई करने वाले आज सबसे तेजी से अमीर बन रहे हैं। इस रेस में पिछड़े युवा तेजी से पिछड़ रहे हैं। उत्तर प्रदेश के नोएडा और हरियाणा के गुड़गांव के हरियाणा में आपको पढ़े लिखे लोगों की समृद्धि और जमीन बेचकर करोड़ों कमाने वालों की लाइफस्टाइल का फर्क साफ नजर आएगा। ऐसे भी वाकए हैं जब जमीन बेचकर लाखों रुपए कमाने वाला कोई शख्स किसी एक्जिक्यूटिव की कार चला रहा है। अगली पीढ़ी तक ये फासला और बढ़ेगा।

इसी को ध्यान में रखते हुए भारतीय लोकतंत्र का आदर्श स्वतंत्रता, समानता और बन्धुत्व पर आधारित सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था की स्थापना है। लोकतांत्रिक भारत में इस आधार पर किसी को प्रतिष्ठा और अवसर की समानता से वंचित नहीं किया जा सकता कि वह आपसे कम योग्य है। यदि कोई फिलहाल आपसे कम योग्य है तो उसकी संभावना का विकास कीजिए और उसे अपने बराबर की प्रतिष्ठा और अवसर दीजिए ताकि वह आपसे स्वस्थ प्रतियोगिता कर सकने में सक्षम बन सके। “प्रत्येक जीव अव्यक्त ब्रह्म है।” हर मानव में विकास करने की असीम संभावना छिपी होती है, उस संभावना का पता लगाइए और उसका विकास करने का अवसर और माहौल दीजिए। भारतीय संविधान में दलित और पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण का प्रावधान इसीलिए किया गया है।
इसी आधार पर 20 जनवरी, 2006 को अधिनियमित 93वें संविधान संशोधन अधिनियम के द्वारा अंत:स्थापित अनुच्छेद 15(5) के अनुसार, “इस अनुच्छेद या अनुच्छेद 19 के खंड (1) के उप-खंड (छ) की कोई बात राज्य को सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े हुए नागरिकों के किन्हीं वर्गों की उन्नति के लिए या अनुसूचित जातियों या अनुसूचित जनजातियों के लिए विधि द्वारा कोई विशेष उपबंध करने से निवारित नहीं करेगी, जहाँ तक ऐसे विशेष उपबंध, अनुच्छेद 30 के खंड (1) में उल्लिखित अल्पसंख्यक शैक्षिक संस्थानों को छोड़कर, निजी शैक्षिक संस्थानों सहित शैक्षिक संस्थानों, चाहे वे राज्य से सहायता प्राप्त हों या गैर-सहायता प्राप्त हों, में प्रवेश से संबंधित हों।”
पिछड़े वर्गों को परिभाषित करने का सिलसिला वर्ष 1921 में माइसोस्ट्रेट में शुरू हुआ था कालेलकर की रिपोर्ट जब आई तो लोग चाहते थे कि आरक्षण के लिए जाति के आधार लिए जाने चाहिए. 1955 से लेकर 1978 तक मामला इसी बात पर रूका रहा कि हमें जाति के आधार पर हमें आरक्षण देना चाहिए या नहीं। रजनी कोठारी ने कहा था कि हमारे समाज में जाति के विरोध की राजनीति तो हो सकती है, लेकिन जाति बग़ैर नहीं. और ऐसी राजनीति का निशान इसलिए नहीं है कि हमारे समाज में जाति का ठप्पा हर चीज़ पर है
संविधान के अनुच्छेद 15-16 में क्रीमी लेयर का प्रावधान नहीं है। वर्ष 1992 में इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार के फैसले में क्रीमी लेयर की बात कही गई थी। इसके बाद नौकरियों में क्रीमी लेयर को लागू कर दिया गया और अब शिक्षण संस्थाओं में इसको लेकर कुछ भी नहीं हुआ। सरकार ने जिन लोगों को फायेदा दिया है उसमें कमज़ोर तबका इसका लाभ ले नही पायेगा क्यूंकि केवल आरक्षण मिलने भर से जो इन बड़े बड़े संस्थानों के खर्चे हैं वो कम नही होंगे और उन गरीब घरों के बच्चे जो कक्षा 10 से आगे बढ़ने के बारे में सोचते ही नही और सोचते भी हैं तो उन्हें सुविधाएं या कहें कि पैसे ही नही मिलते कि अच्छी जगह जाकर पढाई कर सकें और मोटी मोटी फीस का बोझ उठा सकें। हाँ जो लोग उठा सकते हैं उन्हें इसमें शामिल नही किया गए क्यूंकि वो इतने साधन संपन्न हैं कि उन्हें किसी आरक्षण की ज़रूरत नही है। यानी वो क्रेमी layer में आते हैं। अब सवाल ये उठता है कि ये आरक्षण है तो किसके लिए?
अन्य पिछड़े वर्ग के लोग शायद ही आरक्षण का लाभ उठा पाएँ, क्योंकि समाज और सत्ता में पहले से प्रभावी ऊँची जाति के लोग पिछड़ी जाति के व्यक्तियों को अपेक्षित ओबीसी प्रमाण पत्र ही जारी नहीं होने देंगे। पूरे देश भर में राजस्व अधिकारियों द्वारा ओबीसी प्रमाण पत्र जारी किए जाने की प्रक्रिया में जो भ्रष्टाचार और लालफीताशाही है उसको देखते हुए आय प्रमाण पत्र को आरक्षण का आधार बनाया जाना न्यायोचित भी नहीं है। दूसरी बात यह कि आरक्षण का मूल प्रयोजन पिछड़े वर्गों के शैक्षिक पिछड़ेपन को दूर करना और सत्ता में उनकी भागीदारी को जनसंख्या में उनके अनुपात के स्तर तक बढ़ाना है, ताकि उन्हें संविधान में घोषित प्रतिष्ठा और अवसर की समानता हासिल हो सके। हमारे समाज में प्रतिष्ठा और अवसर की समानता शिक्षा और सत्ता के स्तर के आधार पर तय होती है, न कि आर्थिक आधार पर।

शायद इसी लिए विंध्याचल से दक्षिण के लगभग हर पिछड़ा नेता ने स्कूल कॉलेज से लेकर यूनिवर्सिटी खोलने में दिलचस्पी ली थी और ये सिलसिला अब भी जारी है। लेकिन उत्तर भारत के ज्यादातर पिछड़ा नेता अपने आचरण में शिक्षा विरोधी साबित हुए हैं। उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, आदि राज्यों के अच्छे शिक्षा संस्थान पिछड़ा उभार के इसी दौर में बर्बाद हो गए। इन नेताओं से नए शिक्षा संस्थान बनाने और चलाने की तो आप कल्पना भी नहीं कर सकते। शिक्षा को लेकर उत्तर भारत के पिछड़े नेताओं में एक अजीब सी वितृष्णा आपको साफ नजर आएगी।

1960 के दशक से चली आ रही उत्तर भारत की सबसे मजबूत और प्रभावशाली राजनीतिक धारा के अस्त होने का समय आ गया है। ये धारा समाजवाद, लोहियावाद और कांग्रेस विरोध से शुरू होकर अब आरजेडी, समाजवादी पार्टी, इंडियन नेशनल लोकदल, समता पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, लोक जन शक्ति पार्टी आदि समूहों में खंड खंड हो चुकी है। गैर-कांग्रेसवाद का अंत वैसे ही हो चुका है। टुकड़े टुकड़े में बंट जाना इस राजनीति के अंत का कारण नहीं है। पिछड़ा राजनीति शुरुआत से ही खंड-खंड ही रही है। बुरी बात ये है कि पिछड़ावाद अब अपनी सकारात्मक ऊर्जा यानी समाज और राजनीति को अच्छे के लिए बदलने की क्षमता लगभग खो चुका है। पिछड़ा राजनीति के पतन में दोष किसका है, इसका हिसाब इतिहास लेखक जरूर करेंगे। लेकिन इस मामले में सारा दोष क्या व्यक्तियों का है ? उत्तर भारत के पिछड़े नेता इस मामले में अपने पाप से मुक्त नहीं हो सकते हैं, लेकिन राजनीति की इस महत्वपूर्ण धारा के अन्त के लिए सामाजिक-आर्थिक स्थितियां भी जिम्मेदार हैं।

दरअसल जिसे हम पिछड़ा या गैर-द्विज राजनीति मानते या कहते हैं, वो तमाम पिछड़ी जातियों को समेटने वाली धारा कभी नहीं रही है। खासकर इस राजनीति का नेतृत्व हमेशा ही पिछड़ों में से अगड़ी जातियों ने किया है। कर्पूरी ठाकुर जैसे चंद प्रतीकात्मक अपवादों को छोड़ दें तो इस राजनीति के शिखर पर आपको हमेशा कोई यादव, कोई कुर्मी या कोयरी, कोई जाट, कोई लोध ही नजर आएगा। दरअसल पिछड़ा राजनीति एक ऐसी धारा है जिसका जन्म इसलिए हुआ क्योंकि आजादी के बात पिछड़ी जातियों को राजनीतिक सत्ता में हिस्सेदारी नहीं मिल पा रही थी। अब जबकि इन जातियों के राजनीतिक सशक्तिकरण का काम लगभग पूरा हो चुका है, तो इन जातियों में मौजूदा शक्ति संतुलन को बदलने की न ऊर्जा है, न इच्छा और न ही जरूरत। इस मामले में पिछड़ा राजनीति अब यथास्थिति की समर्थक ताकत है।
सामाजिक न्याय-अभियान को आगे बढ़ाने के उनके नारे ‘खाली कारतूस’ साबित हुए. कईयों पर भ्रष्टाचार और परिवारवाद के गंभीर आरोप लगे. कइयों की शासकीय दृष्टिहीनता ने उनका करिश्मा ख़त्म कर दिया और विचारवान माने गए कुछेक मंडलवादी नेता सामाजिक न्याय का सुदृढ़ीकरण करने की बजाय भाजपा की ‘रामनामी गोद’ में जा बैठे.पर इससे यह निष्कर्ष निकालना गलत होगा कि दलित या पिछड़े वर्ग के प्रतिनिधियों की यही नियति है या कि सिर्फ़ सवर्ण-संभ्रांत समाज के प्रतिनिधि ही देश को सही दिशा दे सकते हैं.सामाजिक न्याय के इन स्वघोषित दूतों के वैचारिक-स्खलन से सिर्फ़ एक बात साफ हुई है कि भारतीय समाज में सामाजिक की विचारधारात्मक लड़ाई के लिए ज़्यादा सुसंगत-सुदृढ़ प्रतिनिधियों की जरूरत है.कई तरह की शक्तियाँ इस दिशा में सक्रिए हैं. कुछ सत्ता राजनीति का हिस्सा हैं तो कुछ ‘बदलाव की राजनीति’ को अपना एजेंडा मानती हैं. बेहतर विकल्प की तलाश करते भारतीय समाज को आर्थिक-प्रगति, सामाजिक न्याय और सुसंगत विकास का रास्ता कौन दिखाएगा इस बारे में भविष्यवाणी करना कठिन है.
सामाजिक न्याय के इन स्वघोषित दूतों के वैचारिक-स्खलन से सिर्फ़ एक बात साफ हुई है कि भारतीय समाज में सामाजिक न्याय की विचारधारात्मक लड़ाई के लिए ज़्यादा सुसंगत-सुदृढ़ प्रतिनिधियों की जरूरत है .कई तरह की शक्तियाँ इस दिशा में सक्रिए हैं. कुछ सत्ता राजनीति का हिस्सा हैं तो कुछ ‘बदलाव की राजनीति’ को अपना एजेंडा मानती हैं. बेहतर विकल्प की तलाश करते भारतीय समाज को आर्थिक-प्रगति, सामाजिक न्याय और सुसंगत विकास का रास्ता कौन दिखाएगा इस बारे में भविष्यवाणी करना कठिन है.पर इससे यह निष्कर्ष निकालना गलत होगा कि दलित या पिछड़े वर्ग के प्रतिनिधियों की यही नियति है या कि सिर्फ़ सवर्ण-संभ्रांत समाज के प्रतिनिधि ही देश को सही दिशा दे सकते हैं.



प्रदीप गोल्याण, Date:- 16. Apr 2008
विश्लेषक एवं लेखक
E-mail: pkdhim@gmail.com
Contact No.- 09315821807

मंगलवार, 15 अप्रैल 2008

सामाजिक न्याय के लिए ज़्यादा सुसंगत-सुदृढ़ प्रतिनिधियों की जरूरत

किसी भी देश की सबसे बड़ी पूंजी या संसाधन वहां के लोग होते हैं। इसीलिए मानव संसाधन का सर्वागीण विकास किसी भी देश के विकास की प्रक्रिया का सबसे महत्वपूर्ण घटक माना जाता है और शिक्षा के विभिन्न औपचारिक-अनौपचारिक रूप इस प्रक्रिया का मूल आधार होते हैं। ये आधार जितने सुदृढ़, जितने परिपूर्ण और जितने समसामयिक होते हैं, व्यक्ति या मानव संसाधन का विकास भी उतना ही सर्वागीण होता है।
नॉलेज इकॉनॉमी में शिक्षा का महत्व चमत्कारिक रूप से बढ़ा है। आईटी से लेकर मैनेजमेंट और हॉस्पिटालिटी से लेकर डिजाइनिंग, एनिमेशन और ऐसे ही तमाम स्ट्रीम की अच्छी पढ़ाई करने वाले आज सबसे तेजी से अमीर बन रहे हैं। इस रेस में पिछड़े युवा तेजी से पिछड़ रहे हैं। उत्तर प्रदेश के नोएडा और हरियाणा के गुड़गांव के हरियाणा में आपको पढ़े लिखे लोगों की समृद्धि और जमीन बेचकर करोड़ों कमाने वालों की लाइफस्टाइल का फर्क साफ नजर आएगा। ऐसे भी वाकए हैं जब जमीन बेचकर लाखों रुपए कमाने वाला कोई शख्स किसी एक्जिक्यूटिव की कार चला रहा है। अगली पीढ़ी तक ये फासला और बढ़ेगा।

इसी को ध्यान में रखते हुए भारतीय लोकतंत्र का आदर्श स्वतंत्रता, समानता और बन्धुत्व पर आधारित सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था की स्थापना है। लोकतांत्रिक भारत में इस आधार पर किसी को प्रतिष्ठा और अवसर की समानता से वंचित नहीं किया जा सकता कि वह आपसे कम योग्य है। यदि कोई फिलहाल आपसे कम योग्य है तो उसकी संभावना का विकास कीजिए और उसे अपने बराबर की प्रतिष्ठा और अवसर दीजिए ताकि वह आपसे स्वस्थ प्रतियोगिता कर सकने में सक्षम बन सके। “प्रत्येक जीव अव्यक्त ब्रह्म है।” हर मानव में विकास करने की असीम संभावना छिपी होती है, उस संभावना का पता लगाइए और उसका विकास करने का अवसर और माहौल दीजिए। भारतीय संविधान में दलित और पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण का प्रावधान इसीलिए किया गया है।
इसी आधार पर 20 जनवरी, 2006 को अधिनियमित 93वें संविधान संशोधन अधिनियम के द्वारा अंत:स्थापित अनुच्छेद 15(5) के अनुसार, “इस अनुच्छेद या अनुच्छेद 19 के खंड (1) के उप-खंड (छ) की कोई बात राज्य को सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े हुए नागरिकों के किन्हीं वर्गों की उन्नति के लिए या अनुसूचित जातियों या अनुसूचित जनजातियों के लिए विधि द्वारा कोई विशेष उपबंध करने से निवारित नहीं करेगी, जहाँ तक ऐसे विशेष उपबंध, अनुच्छेद 30 के खंड (1) में उल्लिखित अल्पसंख्यक शैक्षिक संस्थानों को छोड़कर, निजी शैक्षिक संस्थानों सहित शैक्षिक संस्थानों, चाहे वे राज्य से सहायता प्राप्त हों या गैर-सहायता प्राप्त हों, में प्रवेश से संबंधित हों।”
अब हायर एजुकेशन के केंद्रीय संस्थानों में 27 फीसदी ओबीसी रिजर्वेशन को लागू किया जा रहा है। दिलचस्प बात यह है कि इस बार यह प्रस्ताव कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार की ओर से आया है। हालाँकि इस मामले में सरकार के इरादे की गंभीरता संदेह के दायरे में है। संविधान के अनुच्छेद 15(5) के अधीन केन्द्रीय विश्वविद्यालयों और केन्द्र सरकार द्वारा वित्तपोषित व निजि शैक्षिक संस्थाओं में अन्य पिछड़े वर्ग के छात्रों को 27% आरक्षण दिए जाने का मौजूदा प्रस्ताव मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह की ओर से आया है जो मौजूदा सरकार और कांग्रेस पार्टी में इतनी प्रभावी स्थिति में नहीं हैं कि इस प्रस्ताव को अपने दम पर कार्यान्वित करवा सकें।
अर्जुन सिंह ने कहा कि संस्थानों को उनकी तैयारी के मुताबिक चरणबद्ध तरीके से आरक्षण लागू करने की छूट होगी। संस्थानों को तीन साल में 27 प्रतिशत आरक्षण देना अनिवार्य होगा। जिस संस्थान की तैयारी पूरी होगी वह एक बार में ही 27 फीसदी आरक्षण लागू कर सकता है। संस्थानों को वीरप्पा मोइली कमेटी के फामरूले के मुताबिक ओबीसी आरक्षण के लिए सीटों में 54 फीसदी का इजाफा करना था।
पिछड़े वर्गों को परिभाषित करने का सिलसिला वर्ष 1921 में माइसोस्ट्रेट में शुरू हुआ था कालेलकर की रिपोर्ट जब आई तो लोग चाहते थे कि आरक्षण के लिए जाति के आधार लिए जाने चाहिए. 1955 से लेकर 1978 तक मामला इसी बात पर रूका रहा कि हमें जाति के आधार पर हमें आरक्षण देना चाहिए या नहीं। रजनी कोठारी ने कहा था कि हमारे समाज में जाति के विरोध की राजनीति तो हो सकती है, लेकिन जाति बग़ैर नहीं. और ऐसी राजनीति का निशान इसलिए नहीं है कि हमारे समाज में जाति का ठप्पा हर चीज़ पर है
संविधान के अनुच्छेद 15-16 में क्रीमी लेयर का प्रावधान नहीं है। वर्ष 1992 में इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार के फैसले में क्रीमी लेयर की बात कही गई थी। इसके बाद नौकरियों में क्रीमी लेयर को लागू कर दिया गया और अब शिक्षण संस्थाओं में इसको लेकर कुछ भी नहीं हुआ। सरकार ने जिन लोगों को फायेदा दिया है उसमें कमज़ोर तबका इसका लाभ ले नही पायेगा क्यूंकि केवल आरक्षण मिलने भर से जो इन बड़े बड़े संस्थानों के खर्चे हैं वो कम नही होंगे और उन गरीब घरों के बच्चे जो कक्षा 10 से आगे बढ़ने के बारे में सोचते ही नही और सोचते भी हैं तो उन्हें सुविधाएं या कहें कि पैसे ही नही मिलते कि अच्छी जगह जाकर पढाई कर सकें और मोटी मोटी फीस का बोझ उठा सकें। हाँ जो लोग उठा सकते हैं उन्हें इसमें शामिल नही किया गए क्यूंकि वो इतने साधन संपन्न हैं कि उन्हें किसी आरक्षण की ज़रूरत नही है। यानी वो क्रेमी layer में आते हैं। अब सवाल ये उठता है कि ये आरक्षण है तो किसके लिए?
अन्य पिछड़े वर्ग के लोग शायद ही आरक्षण का लाभ उठा पाएँ, क्योंकि समाज और सत्ता में पहले से प्रभावी ऊँची जाति के लोग पिछड़ी जाति के व्यक्तियों को अपेक्षित ओबीसी प्रमाण पत्र ही जारी नहीं होने देंगे। पूरे देश भर में राजस्व अधिकारियों द्वारा ओबीसी प्रमाण पत्र जारी किए जाने की प्रक्रिया में जो भ्रष्टाचार और लालफीताशाही है उसको देखते हुए आय प्रमाण पत्र को आरक्षण का आधार बनाया जाना न्यायोचित भी नहीं है। दूसरी बात यह कि आरक्षण का मूल प्रयोजन पिछड़े वर्गों के शैक्षिक पिछड़ेपन को दूर करना और सत्ता में उनकी भागीदारी को जनसंख्या में उनके अनुपात के स्तर तक बढ़ाना है, ताकि उन्हें संविधान में घोषित प्रतिष्ठा और अवसर की समानता हासिल हो सके। हमारे समाज में प्रतिष्ठा और अवसर की समानता शिक्षा और सत्ता के स्तर के आधार पर तय होती है, न कि आर्थिक आधार पर।
शायद इसी लिए विंध्याचल से दक्षिण के लगभग हर पिछड़ा नेता ने स्कूल कॉलेज से लेकर यूनिवर्सिटी खोलने में दिलचस्पी ली थी और ये सिलसिला अब भी जारी है। लेकिन उत्तर भारत के ज्यादातर पिछड़ा नेता अपने आचरण में शिक्षा विरोधी साबित हुए हैं। उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, आदि राज्यों के अच्छे शिक्षा संस्थान पिछड़ा उभार के इसी दौर में बर्बाद हो गए। इन नेताओं से नए शिक्षा संस्थान बनाने और चलाने की तो आप कल्पना भी नहीं कर सकते। शिक्षा को लेकर उत्तर भारत के पिछड़े नेताओं में एक अजीब सी वितृष्णा आपको साफ नजर आएगी।
1960 के दशक से चली आ रही उत्तर भारत की सबसे मजबूत और प्रभावशाली राजनीतिक धारा के अस्त होने का समय आ गया है। ये धारा समाजवाद, लोहियावाद और कांग्रेस विरोध से शुरू होकर अब आरजेडी, समाजवादी पार्टी, इंडियन नेशनल लोकदल, समता पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, लोक जन शक्ति पार्टी आदि समूहों में खंड खंड हो चुकी है। गैर-कांग्रेसवाद का अंत वैसे ही हो चुका है। टुकड़े टुकड़े में बंट जाना इस राजनीति के अंत का कारण नहीं है। पिछड़ा राजनीति शुरुआत से ही खंड-खंड ही रही है। बुरी बात ये है कि पिछड़ावाद अब अपनी सकारात्मक ऊर्जा यानी समाज और राजनीति को अच्छे के लिए बदलने की क्षमता लगभग खो चुका है। पिछड़ा राजनीति के पतन में दोष किसका है, इसका हिसाब इतिहास लेखक जरूर करेंगे। लेकिन इस मामले में सारा दोष क्या व्यक्तियों का है ? उत्तर भारत के पिछड़े नेता इस मामले में अपने पाप से मुक्त नहीं हो सकते हैं, लेकिन राजनीति की इस महत्वपूर्ण धारा के अन्त के लिए सामाजिक-आर्थिक स्थितियां भी जिम्मेदार हैं।
दरअसल जिसे हम पिछड़ा या गैर-द्विज राजनीति मानते या कहते हैं, वो तमाम पिछड़ी जातियों को समेटने वाली धारा कभी नहीं रही है। खासकर इस राजनीति का नेतृत्व हमेशा ही पिछड़ों में से अगड़ी जातियों ने किया है। कर्पूरी ठाकुर जैसे चंद प्रतीकात्मक अपवादों को छोड़ दें तो इस राजनीति के शिखर पर आपको हमेशा कोई यादव, कोई कुर्मी या कोयरी, कोई जाट, कोई लोध ही नजर आएगा। दरअसल पिछड़ा राजनीति एक ऐसी धारा है जिसका जन्म इसलिए हुआ क्योंकि आजादी के बात पिछड़ी जातियों को राजनीतिक सत्ता में हिस्सेदारी नहीं मिल पा रही थी। अब जबकि इन जातियों के राजनीतिक सशक्तिकरण का काम लगभग पूरा हो चुका है, तो इन जातियों में मौजूदा शक्ति संतुलन को बदलने की न ऊर्जा है, न इच्छा और न ही जरूरत। इस मामले में पिछड़ा राजनीति अब यथास्थिति की समर्थक ताकत है।
सामाजिक न्याय-अभियान को आगे बढ़ाने के उनके नारे ‘खाली कारतूस’ साबित हुए. कईयों पर भ्रष्टाचार और परिवारवाद के गंभीर आरोप लगे. कइयों की शासकीय दृष्टिहीनता ने उनका करिश्मा ख़त्म कर दिया और विचारवान माने गए कुछेक मंडलवादी नेता सामाजिक न्याय का सुदृढ़ीकरण करने की बजाय भाजपा की ‘रामनामी गोद’ में जा बैठे.पर इससे यह निष्कर्ष निकालना गलत होगा कि दलित या पिछड़े वर्ग के प्रतिनिधियों की यही नियति है या कि सिर्फ़ सवर्ण-संभ्रांत समाज के प्रतिनिधि ही देश को सही दिशा दे सकते हैं.सामाजिक न्याय के इन स्वघोषित दूतों के वैचारिक-स्खलन से सिर्फ़ एक बात साफ हुई है कि भारतीय समाज में सामाजिक की विचारधारात्मक लड़ाई के लिए ज़्यादा सुसंगत-सुदृढ़ प्रतिनिधियों की जरूरत है.कई तरह की शक्तियाँ इस दिशा में सक्रिए हैं. कुछ सत्ता राजनीति का हिस्सा हैं तो कुछ ‘बदलाव की राजनीति’ को अपना एजेंडा मानती हैं. बेहतर विकल्प की तलाश करते भारतीय समाज को आर्थिक-प्रगति, सामाजिक न्याय और सुसंगत विकास का रास्ता कौन दिखाएगा इस बारे में भविष्यवाणी करना कठिन है.
सामाजिक न्याय के इन स्वघोषित दूतों के वैचारिक-स्खलन से सिर्फ़ एक बात साफ हुई है कि भारतीय समाज में सामाजिक न्याय की विचारधारात्मक लड़ाई के लिए ज़्यादा सुसंगत-सुदृढ़ प्रतिनिधियों की जरूरत है ।कई तरह की शक्तियाँ इस दिशा में सक्रिए हैं. कुछ सत्ता राजनीति का हिस्सा हैं तो कुछ ‘बदलाव की राजनीति’ को अपना एजेंडा मानती हैं. बेहतर विकल्प की तलाश करते भारतीय समाज को आर्थिक-प्रगति, सामाजिक न्याय और सुसंगत विकास का रास्ता कौन दिखाएगा इस बारे में भविष्यवाणी करना कठिन है.पर इससे यह निष्कर्ष निकालना गलत होगा कि दलित या पिछड़े वर्ग के प्रतिनिधियों की यही नियति है या कि सिर्फ़ सवर्ण-संभ्रांत समाज के प्रतिनिधि ही देश को सही दिशा दे सकते हैं.

प्रदीप गोल्याण, Date:- 16. Apr 2008
विश्लेषक एवं लेखक
E-mail: pkdhim@gmail.com
Contact No.- 09315821807

सामाजिक न्याय के लिए ज़्यादा सुसंगत-सुदृढ़ प्रतिनिधियों की जरूरत

किसी भी देश की सबसे बड़ी पूंजी या संसाधन वहां के लोग होते हैं। इसीलिए मानव संसाधन का सर्वागीण विकास किसी भी देश के विकास की प्रक्रिया का सबसे महत्वपूर्ण घटक माना जाता है और शिक्षा के विभिन्न औपचारिक-अनौपचारिक रूप इस प्रक्रिया का मूल आधार होते हैं। ये आधार जितने सुदृढ़, जितने परिपूर्ण और जितने समसामयिक होते हैं, व्यक्ति या मानव संसाधन का विकास भी उतना ही सर्वागीण होता है।
नॉलेज इकॉनॉमी में शिक्षा का महत्व चमत्कारिक रूप से बढ़ा है। आईटी से लेकर मैनेजमेंट और हॉस्पिटालिटी से लेकर डिजाइनिंग, एनिमेशन और ऐसे ही तमाम स्ट्रीम की अच्छी पढ़ाई करने वाले आज सबसे तेजी से अमीर बन रहे हैं। इस रेस में पिछड़े युवा तेजी से पिछड़ रहे हैं। उत्तर प्रदेश के नोएडा और हरियाणा के गुड़गांव के हरियाणा में आपको पढ़े लिखे लोगों की समृद्धि और जमीन बेचकर करोड़ों कमाने वालों की लाइफस्टाइल का फर्क साफ नजर आएगा। ऐसे भी वाकए हैं जब जमीन बेचकर लाखों रुपए कमाने वाला कोई शख्स किसी एक्जिक्यूटिव की कार चला रहा है। अगली पीढ़ी तक ये फासला और बढ़ेगा।

इसी को ध्यान में रखते हुए भारतीय लोकतंत्र का आदर्श स्वतंत्रता, समानता और बन्धुत्व पर आधारित सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था की स्थापना है। लोकतांत्रिक भारत में इस आधार पर किसी को प्रतिष्ठा और अवसर की समानता से वंचित नहीं किया जा सकता कि वह आपसे कम योग्य है। यदि कोई फिलहाल आपसे कम योग्य है तो उसकी संभावना का विकास कीजिए और उसे अपने बराबर की प्रतिष्ठा और अवसर दीजिए ताकि वह आपसे स्वस्थ प्रतियोगिता कर सकने में सक्षम बन सके। “प्रत्येक जीव अव्यक्त ब्रह्म है।” हर मानव में विकास करने की असीम संभावना छिपी होती है, उस संभावना का पता लगाइए और उसका विकास करने का अवसर और माहौल दीजिए। भारतीय संविधान में दलित और पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण का प्रावधान इसीलिए किया गया है।
इसी आधार पर 20 जनवरी, 2006 को अधिनियमित 93वें संविधान संशोधन अधिनियम के द्वारा अंत:स्थापित अनुच्छेद 15(5) के अनुसार, “इस अनुच्छेद या अनुच्छेद 19 के खंड (1) के उप-खंड (छ) की कोई बात राज्य को सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े हुए नागरिकों के किन्हीं वर्गों की उन्नति के लिए या अनुसूचित जातियों या अनुसूचित जनजातियों के लिए विधि द्वारा कोई विशेष उपबंध करने से निवारित नहीं करेगी, जहाँ तक ऐसे विशेष उपबंध, अनुच्छेद 30 के खंड (1) में उल्लिखित अल्पसंख्यक शैक्षिक संस्थानों को छोड़कर, निजी शैक्षिक संस्थानों सहित शैक्षिक संस्थानों, चाहे वे राज्य से सहायता प्राप्त हों या गैर-सहायता प्राप्त हों, में प्रवेश से संबंधित हों।”
अब हायर एजुकेशन के केंद्रीय संस्थानों में 27 फीसदी ओबीसी रिजर्वेशन को लागू किया जा रहा है। दिलचस्प बात यह है कि इस बार यह प्रस्ताव कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार की ओर से आया है। हालाँकि इस मामले में सरकार के इरादे की गंभीरता संदेह के दायरे में है। संविधान के अनुच्छेद 15(5) के अधीन केन्द्रीय विश्वविद्यालयों और केन्द्र सरकार द्वारा वित्तपोषित व निजि शैक्षिक संस्थाओं में अन्य पिछड़े वर्ग के छात्रों को 27% आरक्षण दिए जाने का मौजूदा प्रस्ताव मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह की ओर से आया है जो मौजूदा सरकार और कांग्रेस पार्टी में इतनी प्रभावी स्थिति में नहीं हैं कि इस प्रस्ताव को अपने दम पर कार्यान्वित करवा सकें।
अर्जुन सिंह ने कहा कि संस्थानों को उनकी तैयारी के मुताबिक चरणबद्ध तरीके से आरक्षण लागू करने की छूट होगी। संस्थानों को तीन साल में 27 प्रतिशत आरक्षण देना अनिवार्य होगा। जिस संस्थान की तैयारी पूरी होगी वह एक बार में ही 27 फीसदी आरक्षण लागू कर सकता है। संस्थानों को वीरप्पा मोइली कमेटी के फामरूले के मुताबिक ओबीसी आरक्षण के लिए सीटों में 54 फीसदी का इजाफा करना था।
पिछड़े वर्गों को परिभाषित करने का सिलसिला वर्ष 1921 में माइसोस्ट्रेट में शुरू हुआ था कालेलकर की रिपोर्ट जब आई तो लोग चाहते थे कि आरक्षण के लिए जाति के आधार लिए जाने चाहिए. 1955 से लेकर 1978 तक मामला इसी बात पर रूका रहा कि हमें जाति के आधार पर हमें आरक्षण देना चाहिए या नहीं। रजनी कोठारी ने कहा था कि हमारे समाज में जाति के विरोध की राजनीति तो हो सकती है, लेकिन जाति बग़ैर नहीं. और ऐसी राजनीति का निशान इसलिए नहीं है कि हमारे समाज में जाति का ठप्पा हर चीज़ पर है
संविधान के अनुच्छेद 15-16 में क्रीमी लेयर का प्रावधान नहीं है। वर्ष 1992 में इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार के फैसले में क्रीमी लेयर की बात कही गई थी। इसके बाद नौकरियों में क्रीमी लेयर को लागू कर दिया गया और अब शिक्षण संस्थाओं में इसको लेकर कुछ भी नहीं हुआ। सरकार ने जिन लोगों को फायेदा दिया है उसमें कमज़ोर तबका इसका लाभ ले नही पायेगा क्यूंकि केवल आरक्षण मिलने भर से जो इन बड़े बड़े संस्थानों के खर्चे हैं वो कम नही होंगे और उन गरीब घरों के बच्चे जो कक्षा 10 से आगे बढ़ने के बारे में सोचते ही नही और सोचते भी हैं तो उन्हें सुविधाएं या कहें कि पैसे ही नही मिलते कि अच्छी जगह जाकर पढाई कर सकें और मोटी मोटी फीस का बोझ उठा सकें। हाँ जो लोग उठा सकते हैं उन्हें इसमें शामिल नही किया गए क्यूंकि वो इतने साधन संपन्न हैं कि उन्हें किसी आरक्षण की ज़रूरत नही है। यानी वो क्रेमी layer में आते हैं। अब सवाल ये उठता है कि ये आरक्षण है तो किसके लिए?
अन्य पिछड़े वर्ग के लोग शायद ही आरक्षण का लाभ उठा पाएँ, क्योंकि समाज और सत्ता में पहले से प्रभावी ऊँची जाति के लोग पिछड़ी जाति के व्यक्तियों को अपेक्षित ओबीसी प्रमाण पत्र ही जारी नहीं होने देंगे। पूरे देश भर में राजस्व अधिकारियों द्वारा ओबीसी प्रमाण पत्र जारी किए जाने की प्रक्रिया में जो भ्रष्टाचार और लालफीताशाही है उसको देखते हुए आय प्रमाण पत्र को आरक्षण का आधार बनाया जाना न्यायोचित भी नहीं है। दूसरी बात यह कि आरक्षण का मूल प्रयोजन पिछड़े वर्गों के शैक्षिक पिछड़ेपन को दूर करना और सत्ता में उनकी भागीदारी को जनसंख्या में उनके अनुपात के स्तर तक बढ़ाना है, ताकि उन्हें संविधान में घोषित प्रतिष्ठा और अवसर की समानता हासिल हो सके। हमारे समाज में प्रतिष्ठा और अवसर की समानता शिक्षा और सत्ता के स्तर के आधार पर तय होती है, न कि आर्थिक आधार पर।
शायद इसी लिए विंध्याचल से दक्षिण के लगभग हर पिछड़ा नेता ने स्कूल कॉलेज से लेकर यूनिवर्सिटी खोलने में दिलचस्पी ली थी और ये सिलसिला अब भी जारी है। लेकिन उत्तर भारत के ज्यादातर पिछड़ा नेता अपने आचरण में शिक्षा विरोधी साबित हुए हैं। उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, आदि राज्यों के अच्छे शिक्षा संस्थान पिछड़ा उभार के इसी दौर में बर्बाद हो गए। इन नेताओं से नए शिक्षा संस्थान बनाने और चलाने की तो आप कल्पना भी नहीं कर सकते। शिक्षा को लेकर उत्तर भारत के पिछड़े नेताओं में एक अजीब सी वितृष्णा आपको साफ नजर आएगी।
1960 के दशक से चली आ रही उत्तर भारत की सबसे मजबूत और प्रभावशाली राजनीतिक धारा के अस्त होने का समय आ गया है। ये धारा समाजवाद, लोहियावाद और कांग्रेस विरोध से शुरू होकर अब आरजेडी, समाजवादी पार्टी, इंडियन नेशनल लोकदल, समता पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, लोक जन शक्ति पार्टी आदि समूहों में खंड खंड हो चुकी है। गैर-कांग्रेसवाद का अंत वैसे ही हो चुका है। टुकड़े टुकड़े में बंट जाना इस राजनीति के अंत का कारण नहीं है। पिछड़ा राजनीति शुरुआत से ही खंड-खंड ही रही है। बुरी बात ये है कि पिछड़ावाद अब अपनी सकारात्मक ऊर्जा यानी समाज और राजनीति को अच्छे के लिए बदलने की क्षमता लगभग खो चुका है। पिछड़ा राजनीति के पतन में दोष किसका है, इसका हिसाब इतिहास लेखक जरूर करेंगे। लेकिन इस मामले में सारा दोष क्या व्यक्तियों का है ? उत्तर भारत के पिछड़े नेता इस मामले में अपने पाप से मुक्त नहीं हो सकते हैं, लेकिन राजनीति की इस महत्वपूर्ण धारा के अन्त के लिए सामाजिक-आर्थिक स्थितियां भी जिम्मेदार हैं।
दरअसल जिसे हम पिछड़ा या गैर-द्विज राजनीति मानते या कहते हैं, वो तमाम पिछड़ी जातियों को समेटने वाली धारा कभी नहीं रही है। खासकर इस राजनीति का नेतृत्व हमेशा ही पिछड़ों में से अगड़ी जातियों ने किया है। कर्पूरी ठाकुर जैसे चंद प्रतीकात्मक अपवादों को छोड़ दें तो इस राजनीति के शिखर पर आपको हमेशा कोई यादव, कोई कुर्मी या कोयरी, कोई जाट, कोई लोध ही नजर आएगा। दरअसल पिछड़ा राजनीति एक ऐसी धारा है जिसका जन्म इसलिए हुआ क्योंकि आजादी के बात पिछड़ी जातियों को राजनीतिक सत्ता में हिस्सेदारी नहीं मिल पा रही थी। अब जबकि इन जातियों के राजनीतिक सशक्तिकरण का काम लगभग पूरा हो चुका है, तो इन जातियों में मौजूदा शक्ति संतुलन को बदलने की न ऊर्जा है, न इच्छा और न ही जरूरत। इस मामले में पिछड़ा राजनीति अब यथास्थिति की समर्थक ताकत है।
सामाजिक न्याय-अभियान को आगे बढ़ाने के उनके नारे ‘खाली कारतूस’ साबित हुए. कईयों पर भ्रष्टाचार और परिवारवाद के गंभीर आरोप लगे. कइयों की शासकीय दृष्टिहीनता ने उनका करिश्मा ख़त्म कर दिया और विचारवान माने गए कुछेक मंडलवादी नेता सामाजिक न्याय का सुदृढ़ीकरण करने की बजाय भाजपा की ‘रामनामी गोद’ में जा बैठे.पर इससे यह निष्कर्ष निकालना गलत होगा कि दलित या पिछड़े वर्ग के प्रतिनिधियों की यही नियति है या कि सिर्फ़ सवर्ण-संभ्रांत समाज के प्रतिनिधि ही देश को सही दिशा दे सकते हैं.सामाजिक न्याय के इन स्वघोषित दूतों के वैचारिक-स्खलन से सिर्फ़ एक बात साफ हुई है कि भारतीय समाज में सामाजिक की विचारधारात्मक लड़ाई के लिए ज़्यादा सुसंगत-सुदृढ़ प्रतिनिधियों की जरूरत है.कई तरह की शक्तियाँ इस दिशा में सक्रिए हैं. कुछ सत्ता राजनीति का हिस्सा हैं तो कुछ ‘बदलाव की राजनीति’ को अपना एजेंडा मानती हैं. बेहतर विकल्प की तलाश करते भारतीय समाज को आर्थिक-प्रगति, सामाजिक न्याय और सुसंगत विकास का रास्ता कौन दिखाएगा इस बारे में भविष्यवाणी करना कठिन है.
सामाजिक न्याय के इन स्वघोषित दूतों के वैचारिक-स्खलन से सिर्फ़ एक बात साफ हुई है कि भारतीय समाज में सामाजिक न्याय की विचारधारात्मक लड़ाई के लिए ज़्यादा सुसंगत-सुदृढ़ प्रतिनिधियों की जरूरत है ।कई तरह की शक्तियाँ इस दिशा में सक्रिए हैं. कुछ सत्ता राजनीति का हिस्सा हैं तो कुछ ‘बदलाव की राजनीति’ को अपना एजेंडा मानती हैं. बेहतर विकल्प की तलाश करते भारतीय समाज को आर्थिक-प्रगति, सामाजिक न्याय और सुसंगत विकास का रास्ता कौन दिखाएगा इस बारे में भविष्यवाणी करना कठिन है.पर इससे यह निष्कर्ष निकालना गलत होगा कि दलित या पिछड़े वर्ग के प्रतिनिधियों की यही नियति है या कि सिर्फ़ सवर्ण-संभ्रांत समाज के प्रतिनिधि ही देश को सही दिशा दे सकते हैं.

प्रदीप गोल्याण, Date:- 16. Apr 2008
विश्लेषक एवं लेखक
E-mail: pkdhim@gmail.com
Contact No.- 09315821807

सोमवार, 14 अप्रैल 2008

सामाजिक न्याय:- जटिल सामाजिक प्रस्थिति और राजनीति

हायर एजुकेशन के केंद्रीय संस्थानों में 27 फीसदी ओबीसी रिजर्वेशन पर सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ का फैसला यूपीए सरकार को 'ऐतिहासिक' लग सकता है, लेकिन सच तो यह है कि बहस यहीं पर खत्म होने वाली नहीं है। असल मुद्दा यह है कि क्या कोटा सिस्टम वंचित जातियों को आगे लाने का अकेला ओर सबसे अच्छा तरीका है? इस सवाल से हमारा गणतंत्र जूझता रहेगा, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट का फैसला इस बड़ी बहस (जिसे राजनीति ने सामाजिक न्याय के दर्जे से हटाकर एक भेदभावकारी समस्या में बदल डाला है) के सिर्फ एक हिस्से का जवाब पेश करता है। वह हिस्सा यह है कि सरकार की रिजर्वेशन पॉलिसी संविधान के खिलाफ नहीं जाती।
भारतीय समाज इतना जटिल है कि उसे ब्लैक एंड व्हाइट के नज़रिए से देखा नहीं जा सकता. आर्थिक विषमता, दुरूह व जटिल सामाजिक प्रस्थिति और इसका दोहन करती राजनीति. इन सबके मद्देनज़र संविधान आरक्षण के समर्थन में है। संविधान में आरक्षण-व्यवस्था बहुत सोच-समझ कर की गई थी। सदियों की जड़ जाति-व्यवस्था के अन्यायों को दूर करना और घोर विषम समाज को समतामूलक समाज में बदलना इसका लक्ष्य था। भारतीय संविधान के निर्माता आदरणीय भीमराम अम्बेदकर जी ने हिन्दू धर्म की अस्पृश्यता की नीति के कारण बहुत कुछ सहा था, उन्होंने आरक्षण नीति की परिकल्पना की और लागू किया जिसका मूल उद्देश्य अछूत समझी जानेवाली अनुसूचित जाति और आदिम अधिवासी, वनवासी अर्थात् अनुसूचित जनजाति और पिछड़े वर्गों के लोगों को कुछ विशेष सुविधाएँ तथा रियायत देकर सामान्य लोगों के बराबर लाना था। लेकिन इस नीति का मूल उद्देश्य भटक गया है। भारतीय नवजागरण के प्रणेता स्वामी दयानंद सरस्वती, ज्योतिबा फुले, महादेव गोविंद रानाडे, गोपाल कृष्ण गोखले, जानकीनाथ घोषाल आदि से लेकर महात्मा गांधी, डा. भीमराव अंबेडकर और डा. राममनोहर लोहिया तक के नेताओं के विचारों तथा संघर्ष ने इसका स्वरूप निश्चित किया था। लेकिन नेहरू सरकार से लेकर वर्तमान सरकार तक किसी ने भी इसे समझने और ठीक प्रकार से लागू कने की कोशिश नहीं की। इसके विपरीत इसमें एक के बाद एक गांठे डालकर इसे उलझाया जाता रहा।
संविधान के अनुच्छेद 46 के अंतर्गत राज्य की नीति के निदेशक तत्व के रूप में उपबंध किया गया कि “राज्य, जनता के दुर्बल वर्गों के, विशिष्टतया, अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों और पिछड़े वर्गों के शिक्षा और अर्थ संबंधी हितों की विशेष सावधानी से अभिवृद्धि करेगा और सामाजिक अन्याय और सभी प्रकार के शोषण से उनकी संरक्षा करेगा।” सरकार ने अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के उत्थान और उनको समानता के स्तर पर लाने के लिए कई आवश्यक कदम तुरंत उठा लिए और यह सिलसिला अब भी जारी है। अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए सरकारी सेवाओं में सीधी भर्ती के मामले में आरक्षण 21 सितम्बर, 1947 से और पदोन्नति के मामले में आरक्षण 4 जनवरी, 1957 से ही लागू है। लेकिन आरक्षण के लाभ से सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े अन्य वर्गों के बहुसंख्यक लोगों को वंचित ही रखा गया, क्योंकि कई दशकों तक इन पिछड़े वर्गों की स्पष्ट पहचान ही स्थापित नहीं हो सकी। हालाँकि संविधान में इसके लिए स्पष्ट उपबंध मौजूद रहे हैं।
अनुच्छेद 340 का अनुपालन करते हुए पहली बार राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद ने 29 जनवरी, 1953 को काका कालेलकर की अध्यक्षता में पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन किया। इस आयोग ने अपनी सिफारिशें 30 मार्च, 1955 को सरकार को सौंप दी। इस आयोग ने सभी महिलाओं को पिछड़ी जाति के अंतर्गत शामिल किए जाने और सभी तकनीकी एवं व्यावसायिक शिक्षा संस्थानों में पिछड़े वर्गों के लिए 70% सीटों के आरक्षण की सिफारिश की थी। इसके अलावा सभी सरकारी सेवाओं और स्थानीय निकायों में क्लास I पदों के लिए 25%, क्लास II पदों के लिए 33.5% तथा क्लास III और IV पदों के लिए 40% स्थान पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षित करने की सिफारिश की गई थी। यदि भारतीय समाज में पिछड़े वर्गों की जनसंख्या के आधार पर शिक्षा और सेवा में उनको वास्तविक प्रतिनिधित्व देने की बात की जाए तो वे सिफारिशें बहुत हद तक न्यायसंगत थीं।
1979 में फिर यह मामला उठा और मंडल कमीशन बनाया गया. देश की राजनीति में बहुत बड़ी तब्दीलियाँ लाने की संभावनाएं पैदा की थीं क्योंकि मंडल कमीशन की 12 सिफारिशें थीं. एक सिफारिश थी कि नौकरियों में आरक्षण दिया जाए. लेकिन बाक़ी 11 सिफारिशें बुनियादी तब्दीली की थी. उसमें कहा गया था कि भूमि सुधार होना चाहिए, शिक्षा व्यवस्था बदलनी चाहिए और प्रशासन को बदलना चाहिए. जब रिपोर्ट मान ली गई, तो समझा गया कि समूची रिपोर्ट मान ली जाएगी और उसको चुनिंदा तरीके से कार्यान्वित किया जाएगा. लेकिन दुर्भाग्य है कि उसके मात्र एक सुझाव जो नौकरियों में आरक्षण की थी, उसी पर ज़ोर दिया गया. नतीजा ये हुआ कि वो सब क्राँतिकारी संभावनाएँ थीं वह सब बुझ गई.
जैसा कि मंडल मामले में हुआ, इस बार भी अदालत ने बीच का रास्ता चुना है। उसने कोटे की इजाजत देते हुए क्रीमी लेयर को बाहर रखने की शर्त लगा दी है। हालांकि यह याद करना भी जरूरी है कि न तो सरकार ने क्रीमी लेयर की शर्त को कभी पसंद किया है और न ही इस व्यवस्था के तहत जातियों की लिस्ट में समय-समय पर सुधार की जरूरत को गंभीरता से लिया है। कुल मिलाकर सरकार का रवैया ऐसी बंदिश को लेकर बगावती रहा है और इसलिए हमारे यहां नई जातियां तो रिजर्वेशन की लिस्ट में घुसती रहती हैं, लेकिन किसी को इस आधार पर बाहर का रास्ता नहीं दिखाया जाता कि उसके लिए कोटे की जरूरत खत्म हो चुकी है।

1950 में पिछड़े वर्ग में कुल 1373 जातियां थीं। पहला पिछड़ा वर्ग आयोग 1955 में बना जिसके मुताबिक पिछड़ी जातियों की संख्या 2399 थी। मंडल कमीशन के मुताबिक वर्ष 1980 में 3743 जातियां पिछड़े वर्ग की सूची में थीं। राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग की वर्ष 2006 की रिपोर्ट के मुताबिक 5013 जातियां पिछड़ी हैं। अतः लगातार पिछड़ी जातियों की संख्या बढ़ती जा रही है
सवाल यह है कि पिछले डेढ़ दशकों से चल रही मंडलवादी आरक्षण की राजनीति का हासिल अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए क्या रहा है? जबकि इस वर्ग का एक बड़ा हिस्सा उत्तर भारत के गांवों में सामाजिक पिछड़ापन व भयंकर गरीबी झेल रहा है। मंडल रिपोर्ट के अनुसार ओबीसी की अनुमानित आबादी 52 प्रतिशत है लेकिन सरकारी नौकरियों में उन्हें हम महज 4.51 प्रतिशत आरक्षण दे पाए हैं। 22.5 प्रतिशत आबादी वाली अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति का 1980 (पिछड़ा वर्ग आयोग रिपोर्ट, 1980, भाग-I, पृष्ट 42) में सरकारी नौकरियों में प्रतिशत 18.71 था। जबकि 52.2 प्रतिशत आबादी वाली ओबीसी का प्रतिशत 12.55 था ।

आरक्षण की व्यवस्था पूरे पिछड़े वर्गों की सामाजिक स्थिति को बदलने का आधार न तो थी और न हो सकती है. आरक्षण की व्यवस्था ग़रीबी की समस्या का समाधान भी न तो कभी थी न बन सकती है. कुछ सरकारी महकमों और शैक्षणिक संस्थाओं में आरक्षण की व्यवस्था इस उद्देश्य से बनाई गई थी कि समाज में, राजनीति में और आधुनिक अर्थव्यवस्था के जो शीर्ष पद हैं, उनमें जो सत्ता का केंद्र है, वहाँ दलित समाज और पिछड़े वर्गों की एक न्यूनतम उपस्थिति बन सके.इस उद्देश्य को लेकर चलाई गई यह व्यवस्था इस न्यूनतम उद्देश्य में सफल रही है


आरक्षण संबंधी समस्याएं इसलिए अब तक बनी हुई हैं क्योंकि हमने संविधान की आरक्षण व्यवस्था को लागू करने के लिए शुरू से ही वैज्ञानिक प्रक्रिया का अनुसरण नहीं किया। इस व्यवस्था को सही ढंग से लागू करने के लिए जरूरी था कि जातियों की सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक स्थिति के आंकड़ें जमा किए जाएं और उनके आधार पर जातियों का अगड़े, पिछड़े, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति आदि श्रेणियों में वर्गीकरण किया जाए। प्रत्येक जनगणना के साथ ये आंकड़ें जमा किए जाएं और हर दस साल बाद आंकड़ों के विश्लेषण से पता लगाया जाए कि किन जातियों को संविधान के अनुच्छेत 16(4) के अनुसार नौकरियों आदि में ‘पर्याप्त प्रतिनिधित्व’ मिल गया है और जिन्हें मिल गया हो उन्हें आरक्षण की परिधि से बाहर किया जाए। इस प्रकार उत्तरोत्तर निचली जातियों को आरक्षण की सुविधा मिलती जाती। कालांतर में सभी जातियों को ‘पर्याप्त प्रतिनिधित्व’ मिल जाता तथा आरक्षण व्यवस्था स्वत: समाप्त हो जाती। लेकिन हमारी सरकारें नेहरू सरकार से लेकर वर्तमान सरकार तक जातियों के वैज्ञानिक आंकड़े जमा करने से घबराती रहीं, इसलिए कि ये आंकड़े सामने आए तो जातिगत शोषण की नंगी तस्वीर सामने आ जाएगी। इससे पता चलेगा कि जिन जातियों का कुल जनसंख्या में अनुपात 15-16 प्रतिशत हैं, वे 90-95 प्रतिशत पदों पर कब्जा जमाए बैठी हैं।

अंतिम बार जातियों के आंकड़े 1931 की जनगणना में इकट्ठे किए गए थे। उसके बाद ये आंकड़े जान-बूझ कर जमा नहीं किए गए और बिना वैज्ञानिक आंकड़ों के जातियों की शिनाख्त करने, उनका श्रेणीकरण करने तथा आरक्षण कोटा निर्धारित करने के सारे काम अनाप-शनाप ढंग से हुए। जनगणना के आंकड़ों से पहले क्रीमी लेयर लागू करना अवैज्ञानिक होगा और इसके लिए राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण या किसी और प्रकार के सर्वेक्षण के आंकड़े भी अधूरे ही होंगे। चूंकि जाति सभी राजनीतिक पार्टियों का निहित स्वार्थ बन गई हैं, कोई भी सरकार यह काम करने को तैयार नहीं होगी। अत: उच्चतम न्यायालय को ही इसका स्पष्ट निर्देश देना पड़ेगा। जैसे अमेरिका में रंग-भेद को समाप्त करने का काम वहां के उच्चतम न्यायालय को मुख्य न्यायाधीश अर्ल वारेन के प्रसिद्ध निर्णय के द्वारा करना पड़ा। वैसे ही हमारे उच्चतम न्यायालय को करना पड़ेगा। समस्याओं का अंत तभी होगा जब संविधान की आरक्षण व्यवस्था को पीछे कहे गए अनुसार वैज्ञानिक तरीके से लागू किया जाएगा और उच्चतम न्यायालय को आरक्षणों की 50 प्रतिशत सीमा को भी हटाना पड़ेगा और यह सीमा अद्विज जातियों की जनसंख्या को देखते हुए ‘पर्याप्त प्रतिनिधित्व’ की आवश्यकता के अनुसार निर्धारित करनी पडे़गी



प्रदीप गोल्याण, Date:- 11. Apr 2008
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