बुधवार, 23 अप्रैल 2008

शिक्षा , मलाईदार परतें और गैर आरक्षित क्रीमी लेयर


उच्च शिक्षण संस्थानों में आरक्षण लागू करने के विवाद में करीब दो साल से बैकफुट पर खड़ी कांग्रेस सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद जरूर राहत महसूस कर रही है। मगर अब क्रीमीलेयर की फांस से निकलना पार्टी और सरकार के लिए नई चुनौती है। सुप्रीमकोर्ट के फैसले के बाद उच्च शिक्षण संस्थानों में पिछड़ों को आरक्षण लागू कराने में जुटी सरकार फिलहाल क्रीमी लेयर को आरक्षण के दायरे से बाहर करने के लिए जल्द ही कानून में संशोधन करेगी। आईआईएम और आईआईटी जैसे हाईप्रोफाइल उच्च शिक्षण संस्थानों में दाखिला प्रक्रिया नजदीक होने के चलते राजनीतिक मामलों की कैबिनेट कमेटी ने आरक्षण कानून में संशोधन की मंजूरी दे दी है। अब जल्द ही इसके लिए संसद में विधेयक लाया जाएगा।
सुप्रीम कोर्ट ने पहली बार 1992 में क्रीमीलेयर शब्द का इस्तेमाल किया था। संविधान के अनुच्छेद 15-16 में क्रीमी लेयर का प्रावधान नहीं है। इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार के फैसले में क्रीमी लेयर की बात कही गई थी। इसके बाद नौकरियों में क्रीमी लेयर को लागू कर दिया गया, लेकिन शिक्षण संस्थाओं में इसको लेकर कुछ भी नहीं हुआ। क्रीमीलेयर में राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के न्यायधीशों, यूपीएससी के चेयरमैन समेत राज्य व केंद्र सरकार के ए और बी वर्ग कर्मचारी शामिल हैं। इसके साथ ही, जिनकी आय 2.5 लाख रुपये सालाना है, उन्हें भी क्रीमीलेयर में शामिल किया गया है। क्रीमीलेयर में शामिल लोगों के बच्चों को आरक्षण का लाभ नहीं मिलेगा।
किसी भी देश की सबसे बड़ी पूंजी या संसाधन वहां के लोग होते हैं। इसीलिए मानव संसाधन का सर्वागीण विकास किसी भी देश के विकास की प्रक्रिया का सबसे महत्वपूर्ण घटक माना जाता है और शिक्षा के विभिन्न औपचारिक-अनौपचारिक रूप इस प्रक्रिया का मूल आधार होते हैं। ये आधार जितने सुदृढ़, जितने परिपूर्ण और जितने समसामयिक होते हैं, व्यक्ति या मानव संसाधन का विकास भी उतना ही सर्वागीण होता है।
नॉलेज इकॉनॉमी में शिक्षा का महत्व चमत्कारिक रूप से बढ़ा है। आईटी से लेकर मैनेजमेंट और हॉस्पिटालिटी से लेकर डिजाइनिंग, एनिमेशन और ऐसे ही तमाम स्ट्रीम की अच्छी पढ़ाई करने वाले आज सबसे तेजी से अमीर बन रहे हैं। इस रेस में पिछड़े युवा तेजी से पिछड़ रहे हैं। उत्तर प्रदेश के नोएडा और हरियाणा के गुड़गांव के हरियाणा में आपको पढ़े लिखे लोगों की समृद्धि और जमीन बेचकर करोड़ों कमाने वालों की लाइफस्टाइल का फर्क साफ नजर आएगा। ऐसे भी वाकए हैं जब जमीन बेचकर लाखों रुपए कमाने वाला कोई शख्स किसी एक्जिक्यूटिव की कार चला रहा है। अगली पीढ़ी तक ये फासला और बढ़ेगा।
शिक्षा व्यवस्था समाज के मूल्य , विषमताओं व सत्ता सन्तुलन को बरकरार रखने का एक औजार है । हमारी तालीम में एक छलनी-करण की प्रक्रिया अन्तर्निहित है । लगातार छाँटते जाना । मलाई बनाते हुए, छाँटते जाना। उनको बचाए रखना जो व्यवस्था को टिकाए रखने के औजार बनने ‘लायक’ हों । इस छँटनी-छलनी वाली तालीम का स्वरूप बदले इसलिए एक नारा युवा आन्दोलन में चला था - ‘खुला दाखिला ,सस्ती शिक्षा । लोकतंत्र की यही परीक्षा’ यानि जो भी पिछली परीक्षा पास कर चुका हो और आगे भी पढ़ना चाहता हो , उसे यह मौका मिले। 1977 में यही नारा लगा कर हमारे विश्वविद्यालय में ‘खुला दाखिला’ हुआ था । इस नारे को मानने वाले उच्च शिक्षा में आरक्षण के विरोधी थे और नौकरियों में विशेष अवसर के पक्षधर । इस नारे की विफलता के कारण शिक्षा में आरक्षण की आवश्यकता आन पड़ी । सस्ती शिक्षा का अधिकार सही है लेकिन काफी नहीं है समता के सही माने बनाने की ज़रूरत प्राथमिक स्तर से है लेकिन विवाद स्नातक, स्नातकोत्तर स्तर पर है
शायद इसी के चलते विंध्याचल से दक्षिण के लगभग हर पिछड़ा नेता ने स्कूल कॉलेज से लेकर यूनिवर्सिटी खोलने में दिलचस्पी ली थी और ये सिलसिला अब भी जारी है। लेकिन उत्तर भारत के ज्यादातर पिछड़ा नेता अपने आचरण में शिक्षा विरोधी साबित हुए हैं। उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, आदि राज्यों के अच्छे शिक्षा संस्थान पिछड़ा उभार के इसी दौर में बर्बाद हो गए। इन नेताओं से नए शिक्षा संस्थान बनाने और चलाने की तो आप कल्पना भी नहीं कर सकते। शिक्षा को लेकर उत्तर भारत के पिछड़े नेताओं में एक अजीब सी वितृष्णा आपको साफ नजर आएगी।
सवाल यह है कि आरक्षित कहाँ से आता है, और क्यों है सरकार ने जिन लोगों को फायेदा दिया है उसमें कमज़ोर तबका इसका लाभ ले नही पायेगा क्यूंकि हमारे देश में गरीब बच्चा अपना समय पैसे कमाने में लगाता है शिक्षा लेने के पैसे दीजिये तो उसे पूरा परिवार चलाने के लिए प्रयोग किया जाता है। छात्रवृत्ति मिलती है जिसका हिस्सा दफ्तर के बाबू को देना पड़ता है। केवल आरक्षण मिलने भर से जो इन बड़े बड़े संस्थानों के खर्चे हैं वो कम नही होंगे और उन गरीब घरों के बच्चे जो कक्षा 10 से आगे बढ़ने के बारे में सोचते ही नही और सोचते भी हैं तो उन्हें सुविधाएं या कहें कि पैसे ही नही मिलते कि अच्छी जगह जाकर पढाई कर सकें और मोटी मोटी फीस का बोझ उठा सकें। हाँ जो लोग उठा सकते हैं उन्हें इसमें शामिल नही किया गए क्यूंकि वो इतने साधन संपन्न हैं कि उन्हें किसी आरक्षण की ज़रूरत नही है। यानी वो क्रीमीलेयर में आते हैं। अब सवाल ये उठता है कि ये आरक्षण है तो किसके लिए?
साल 2004-05 के नेशनल सैंपल सर्वे (याद रखें, ये सर्वे है जनगणना नहीं) के मुताबिक देश की आबादी में ओबीसी का हिस्सा सबसे ज्यादा 40.23%, एससी का हिस्सा 19.75%, एसटी का हिस्सा 8.61% और सवर्ण जातियों का हिस्सा 31.41% है। औसत मासिक उपभोग के आधार पर देखें तो 24.88% ओबीसी सबसे गरीब हैं, जबकि भूमि के मालिकाने के आधार पर देखें तो जहां 23.22% ओबीसी सबसे गरीबों में शुमार हैं सवर्णों में सबसे गरीबों की संख्या 13.09% है। इसी आधार पर 20.07% ओबीसी सबसे अमीर है, जबकि सवर्णों में सबसे अमीरों की संख्या 42.29% है। जाहिर है सवर्ण अमीरों का अनुपात सवर्ण ओबीसी से लगभग दोगुना है।
अगर ओबीसी की क्रीमी लेयर को 27 फीसदी आरक्षण से बाहर नहीं किया जाता तो इस तबके के 20.07% सबसे अमीर ही सारी मलाई खा जाएंगे क्योंकि इसी हिस्से में 73.69% डिप्लोमाधारक, 69.81% ग्रेजुएट और 74.01% पोस्ट-ग्रेजुएट है। ओबीसी का बाकी लगभग 80% हिस्सा उच्च शिक्षा में आरक्षण के लाभ से महरूम रह जाएगा क्योंकि इनमें ग्रेजुएशन तक पहुंचनेवाले लोग 3.88% से 17.02% के बीच हैं।
केंद्र सरकार अगर 80 फीसदी ओबीसी को उच्च शिक्षा का लाभ दिलाना चाहती है तो वह कानून में संशोधन जोड़कर क्रीमी लेयर को आसानी से इससे बाहर कर सकती है। वह सरकारी नौकरियों में ऐसा करती भी है और उसके पास क्रीमी लेयर की पूरी परिभाषा है।सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्री मीरा कुमार के अनुसार क्रीमी लेयर को फिर से परिभाषित करने और सालाना आय बढ़ाने आदि के लिए उनका मंत्रालय राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग से बीते साल ही समीक्षा और जरूरी सुझाव देने की सिफारिश कर चुका है।
प्रगतिशील बौद्धिकता और सामाजिक न्याय के आवरण को ओढ़े रखने की कोशिश करने वालों इन पत्रकारों और ‘विशेषज्ञों’ की ओर से अकसर आर्थिक आधार पर आरक्षण दिए जाने की वकालत की जाती है। वे दरअसल भलीभाँति जानते हैं कि परिश्रम, शिल्प-कौशल और अध्यवसाय से संपन्न पिछड़ा वर्ग परिस्थिति की तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद अपनी आर्थिक स्थिति को लगातार मजबूत करने के उद्यम में लगा रहता है, भले ही उसके लिए शिक्षा और सत्ता के दरवाजे बंद कर दिए गए हों। यदि आरक्षण का आधार आर्थिक हो और उसके लिए राजस्व अधिकारियों द्वारा जारी आय प्रमाण पत्र ही मानदंड हो तो अन्य पिछड़े वर्ग के लोग शायद ही आरक्षण का लाभ उठा पाएँ, क्योंकि समाज और सत्ता में पहले से प्रभावी ऊँची जाति के लोग पिछड़ी जाति के व्यक्तियों को अपेक्षित ओबीसी प्रमाण पत्र ही जारी नहीं होने देंगे। पूरे देश भर में राजस्व अधिकारियों द्वारा ओबीसी प्रमाण पत्र जारी किए जाने की प्रक्रिया में जो भ्रष्टाचार और लालफीताशाही है उसको देखते हुए आय प्रमाण पत्र को आरक्षण का आधार बनाया जाना न्यायोचित भी नहीं है। दूसरी बात यह कि आरक्षण का मूल प्रयोजन पिछड़े वर्गों के शैक्षिक पिछड़ेपन को दूर करना और सत्ता में उनकी भागीदारी को जनसंख्या में उनके अनुपात के स्तर तक बढ़ाना है, ताकि उन्हें संविधान में घोषित प्रतिष्ठा और अवसर की समानता हासिल हो सके। हमारे समाज में प्रतिष्ठा और अवसर की समानता शिक्षा और सत्ता के स्तर के आधार पर तय होती है, न कि आर्थिक आधार पर।
लेकिन हम कभी यह मूल्यांकन नहीं करते कि आरक्षण का फायदा क्या हुआ? क्या यह नीति अन्य सरकारी नीतियों की तरह हैं जिसका कोई फायदा नहीं? हम पहले यह क्यों नहीं देखते कि आरक्षण से समाज को क्या लाभ हुआ? दुनिया में आरक्षण जैसी कारगर संवैधानिक नीति नहीं बनी है। सिर्फ पचास साल में इसकी वजह से लाखों दलित इस हालत में पहुंच गए जिन्हें पांच हज़ार साल से किसी लायक नहीं छोड़ा गया था। युगों का पिछड़ापन और आधी सदी का विकास सिर्फ एक नीति से हुआ है। आरक्षण एक आश्चर्य है।


प्रदीप गोल्याण, Date:- 18. Apr 2008
विश्लेषक एवं लेखक
E-mail: pkdhim@gmail.com
Contact No.- 09315821807

बुधवार, 16 अप्रैल 2008

उदारीकरण , निजिकरण व आरक्षण

यूपीए सरकार के गठन के समय न्यूनतम साझा कार्यक्रम बना था जिसमें निजी क्षेत्र में आरक्षण देने की बात कही गयी थी। इसके अतिरिक्त खाली पदों पर भर्ती एवं आरक्षण कानून बनाने की बात भी इसमें कही गयी थी, परन्तु इस दिशा में भी अभी कुछ नहीं हो सका है।
कांग्रेस पार्टी ने आर्थिक ‘सुधारों’ और निजीकरण के द्वारा भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में प्रतिस्पर्धा के जरिए विकास के सिद्धांत को स्थापित करने की रणनीति अपनाई। लेकिन उसे मालूम है कि इससे चुनाव जीते नहीं जा सकते, इसलिए उसे भी मजबूर होकर शैक्षिक संस्थानों में आरक्षण और निजी क्षेत्रों में आरक्षण के मुद्दे को अपनाना पड़ा। "निजी क्षेत्र में कमज़ोर वर्ग के लिए आरक्षण प्रदान करने के लिए, कांग्रेस पार्टी के चुनाव घोषणा पत्र में इसके स्पष्ट ज़िक्र के बावजूद कोई विधेयक नहीं लाया गया है." उद्योग समूह इस विषय में स्वैच्छिक कार्रवाई के पक्ष में हैं. लेकिन क्या वे यह बता सकते हैं कि उन्होंने कमज़ोर वर्गों के लिए अब तक क्या किया है? निजी क्षेत्र में कितने दलित काम कर रहे हैं? उद्योग समूह इस बारे में आँकड़े क्यों नहीं देते? हमारी जानकारी के मुताबिक ये संख्या नगण्य है."
अनुसूचित जाति/जन जाति संगठनों के अखिल भारतीय परिसंघ के आंदोलन के भारी दबाव के कारण केन्द्र सरकार ने उघोगपतियों से वार्ता करना शुरू किया। इसके लिए मंत्रियों की एक कमेटी का भी गठन किया, जिसने सिफारिश की कि निजी क्षेत्र में दलितों को आरक्षण देने के लिए संविधान में संशोधन की आवश्यकता है। कई बार उघोगपतियों के संगठनों ने सरकार से बातचीत भी की और आश्वासन दिया कि वे अपनी सामाजिक जिम्मेदारी निभाने के लिए तैयार हैं। उन्होंने कोटा लादने का जमकर विरोध किया और उसके बदले में कहा कि वे शिक्षा एवं प्रशिक्षण के स्तर पर दलितों की पूरी सहायता के लिए तैयार हैं। इसके लिए कन्फेडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्रीज (सीआईआई) ने जे.जे. ईरानी के नेतृत्व में एक समिति का गठन किया, जिसने शिक्षा और प्रशिक्षण के क्षेत्र में सहयोग करने की सिफारिश की। सरकार से जब जानकारी मांगी गयी कि अभी तक निजी क्षेत्र में दलितोत्थान के लिए क्या–क्या कार्य किए गए तो उसका जबाब आया ही नहीं। आए कैसे, उघोगपतियों को तो समय नष्ट करना है। यदि इनका इरादा नेक होता तो आरक्षण कोटे का विरोध क्यों करते?
Dec. 19,2003 को SC/ST के सदस्यों को सम्बोधित करते हुए अटळ बिहारी वाजपेयी ने भी निजि क्षेत्र में आरक्षण का पक्ष लिया था । इसी के साथ ही 2004 के चुनाव घोषणा पत्र मे कांग्रेस व भारतिय जनता पार्टी ने निजि क्षेत्र में SC/ST व OBC के लिए कल्याणकारी कार्य करने की घोषणा की थी। वामपंथी पार्टियाँ आर्थिक न्याय की राजनीति पर जोर दिए जाने की वकालत करती रही, लेकिन सत्ता से जुड़े रहने के बावजूद ठोस धरातल पर वे इस दिशा में कुछ भी कारगर प्रयास नहीं कर सकीं। जो चरमपंथी वामपंथी पार्टियाँ थी उनलोगों ने नक्सलवाद के रूप में आर्थिक न्याय को हासिल करने के लिए एक ऐसी राह पकड़ ली, जो लोकतंत्र और संविधान के ही विपरीत दिशा में काम करता है।
आरक्षण के पक्ष और विपक्ष मे जो भी दलील दी जा रही हो लेकिन इसके समर्थन और विरोध मे मे जो भी है क्या उन्होने इस नजरिये पर ध्यान दिया है कि, भूमंडलीकरण कि वजह से आरक्षण का क्या रूप बचेगा? भूमंडलीकरण के इस दौर मे आरक्षण किस तरह सफल हो सकता है? अभी तो सब भूमंडलीकरण कि वास्त्विक्ताओ पर कम और मनोगत भावनाओ और पुर्वाग्रहो ज्यादा हो हल्ला कर रहे है। आईये थोडा पिछे जाकर आरक्षण कि वास्तविकता पर नजर डालते है। आजादी के बाद संविधान ने " सामाजिक स्तर पर कमजोर वर्गों विशेषकर दलितो और आदिवासियो के लिये प्रतिबद्धता व्यक्त कि थी। संविधान मे इसके लिये विशेष प्रावधान किये गए। इसके बाद मंडल कमीशन के माध्यम से ओबीसी को आरक्षण दिया गया। 1990 के दशक मे आरक्षण कि जो राजनीती शुरू हुई उसने देश कि दशा और दिशा दोनो बदल दी। लेकिन इसे वक्त एअक और परिवर्तन हुआ जिसकी आहट सब लोगो के कान तक नही पहुची। यही वो दौर था जब नरसिम्हा राव सरकार ने " वॉशिंग्टन आम राय " पर आधारित भूमंडलीकरण को अपनाया। गौर करने कि बात ये है कि किसी भी दल ने इसका विरोध नही किया। " वॉशिंग्टन आम राय " के दस सूत्री कार्यक्रम के आलोक मे मनमोहन सिंह ने आर्थिक सुधार शुरू किया। इन सुधारो का बहुत प्रभाव पड़ा। सरकारी क्षेत्र मे उपलब्ध नौकरियों कि संख्या मे कमी आयी।
1991 मे उदारीकरण व निजिकरण के साथ ही निजि क्षेत्र को ज्यादा सरकारी साहयता मिली तथा सरकार ने भारी उधोगों का विनिवेश भी कर दिया। इस से रोजगार के अवसर सरकारी क्षेत्र से निकल कर निजि क्षेत्र मे चले गऐ । NCSC की रिर्पोट के अनुसार ऐकले SC 1,13,430 नौकरियौं के अवसर 1992-97 तक खो चुका है।
निजि क्षेत्र SC/ST व OBC के आरक्षण की मांग की मांग को पचा नही पा रहा है। यह SC/ST व OBC के लिए आरक्षण को मना कर रहा है। Sept.21, 2004 को राहुल बजाज, अध्यक्ष बजाज औटो ने अपने The Times of India, के लेख मे कहा की निजि क्षेत्र SC/ST को 1/3 रोजगार के अवसर प्रदान कर रहा है। तथा इस से निजि क्षेत्र मे योगयता के आधार पर बनने वाली विरयता सुची को हानी पहुच रही है। इसी तरह सुनील मुंजाल के अनुसार निजि क्षेत्र में आरक्षण के लिए व्यक्तिगत योगयता, उत्पाद गुणवंता व विशव प्रतिस्पर्धा के मामले मे समझोता नही कर सकते है। June 23, 2004 मे ईनफोसिस के अध्यक्ष नारायण मुरठी ने माना है कि हम आरक्षण के खिलाफ नही है परन्तु यह आर्थिक आधार पर होना चाहीए न की जातिय आधार पर । प्रमुख उधोग चैंबर CII के अध्यक्ष सुनील मितल ने कहा कि दलितों को नोकरियां दिलाने का काम जबरन नही हो सकता । स्वैच्छिक तरिका ही एकमात्र उपाय है। उल्लेखनीय है कि विभिन्न उधोग संगठनों के प्रतिनिधियों ने इस मुद्दे पर मुख्य सचिव टी के नायर के साथ बैठक की थी
एसोचैम के अध्यक्ष वेणुगोपाल एन.धूत ने कहा, “हम निजी क्षेत्र में आरक्षण का समर्थन कर सकते हैं बशर्ते उसे हमारे सुझावों के मुताबिक लागू किया जाए।” उन्होंने कहा कि निजी क्षेत्र में आरक्षण प्रणाली लागू करने के वास्ते खुद को तैयार करने के लिए उद्योगों को अभी तीन-चार साल का वक्त चाहिए। उन्होंने कहा, “उद्योगों को आरक्षण व्यवस्था को लागू करने में अभी समय लगेगा और यह बेहतर होगा कि केन्द्र अथवा राज्य सरकार इसे कानून बनाकर क्रियान्वित करने के लिए दबाव न बनाएं।” गौरतलब है कि पिछले वर्ष अगस्त माह में राज्य की मायावती सरकार ने नये आरक्षण सिध्दान्तों के अनुसार, ''सभी निजी निवेशकों को राज्य में औद्योगिक इकाई स्थापित करने के लिए रियायत प्रदान की जाएंगी लेकिन उन्हें अपने यहां नौकरी में अनुसूचित जाति को 10 प्रतिशत तथा अन्य पिछड़ा वर्ग को 10 प्रतिशत आरक्षण देना होगा। इसमें पिछड़े धार्मिक अल्पसंख्यक भी शामिल होंगे। निजी क्षेत्रों को अन्य 10 प्रतिशत आरक्षण उच्च जातियों में आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को भी देनी होगी।'' गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश, भारत का पहला राज्य है जहां निजी क्षेत्र में आरक्षण नीति लागू है।
निजी क्षेत्र में आरक्षण देने के लिए गठित समन्वय समिति की इस दूसरी बैठक में उद्योग जगत ने आरक्षण मसले पर संसद के किसी क़ानून की बजाय इस पर उद्योग जगत के 'एफ़ेरमेटिव एक्शन' यानि स्वैच्छिक कार्रवाई की वकालत की है. निजी क्षेत्र में आरक्षण का विरोध क्यों जबकि अमेरिका में स्वैच्छिक पहल (affirmative actions) के ज़रिए चालीस साल पहले ही निजी कंपनियों ने अपने यहां कई स्तरों पर आरक्षण का प्रावधान शुरू किया. 1970 के दशक में आईबीएम ने अपने यहां अश्वेतों को आरक्षण देना शुरू किया., 1982 में अमेरिका में एक सर्वे में खुलासा हुआ कि मीडिया में सिर्फ़ दो फ़ीसद अफ़्रो-अमेरिकन हैं. यहां अख़बार और चैनल मालिकों ने अफ़रमेटिव एक्शन लेते हुए अल्पसंख्यकों को न सिर्फ़ ट्रेंड किया बल्कि नौकरियां भी दीं. नतीजा यह हुआ कि मीडिया में एफ़्रो-अमेरिकन की तादाद सात फ़ीसद हुई. कई मामलों हैं जब अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण के पक्ष में फ़ैसला सुनाया है. क्या भारत में इस तरह के एक्शन (बिना क़ानून लाए) निजी कंपनियां ले रही है?
देश के दो बड़े निजी बैंक, निजी क्षेत्र में आरक्षण के मामले में एक नया रास्ता दिखा रहे हैं। आईसीआईसीआई और एचडीएफसी बैंक ने अपने कर्मचारियों में इस बात का हिसाब लगाना शुरू कर दिया है कि ‘अफर्मेटिव एक्शन’ के पैमाने पर वो कहां खड़े होते हैं। आईसीआईसीआई बैंक में काम करने वाले लोगों में से कौन किस जाति का है? कितने लोग अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति या अन्य पिछड़ा वर्ग से आते हैं? बैंक का प्रबंधन खुद यह सवाल पूछ रहा है। उसने अपने सारे कर्मचारियों से इसका जवाब मांगा है।खबर है कि ऐसी गिनती एचडीएफसी बैंक में भी हो रही है, लेकिन वो इस पर कुछ भी कहने को तैयार नहीं है। लेकिन आईसीआईसीआई बैंक का कहना है कि यह काम आरक्षण का कोटा भरने के लिए नहीं किया जा रहा है। वो यह जांच करना चाहते हैं कि जब बिना जाति पूछे उन्होंने लोगों को नौकरी दी तो सभी लोगों को बराबर का मौका मिला या नहीं।
निजि क्षेत्र का कहना है की आरक्षण निति के साथ ही उनका उत्पाद खर्च बढ़ता है जिसके कारण उनकी विशव बजार मे प्रतिस्पर्धा शक्ती कम होती है तथा इसका असर उत्पाद पर पडता है। जबकी उदारीकरण, आर्थिक ‘सुधारों’ और निजीकरण के साथ ही निजि क्षेत्र को ज्यादा सरकारी साहयता व अन्य लाभ भी मिल रहे है। इसके साथ-साथ जोब सिक्योर्टी व पदोन्नती तथा आरक्षण के अन्य फायदों पर भी चर्चा करने की आवशयकता है,लेकिन बात यहीं खत्म नहीं होती है। सिर्फ बैंक की प्रणाली सही होने से काम नहीं चलेगा। समाज में सभी तबकों और जातियों के लोगों को यह मौका मिलना जरुरी है कि वे अपनी काबिलियत के हिसाब से प्रशिक्षण हासिल कर सकें और चुनाव प्रक्रिया में बराबरी से शामिल हो सकें

प्रदीप गोल्याण, Date:- 16. Apr 2008
विश्लेषक एवं लेखक
E-mail: pkdhim@gmail.com
Contact No.- 09315821807

सामाजिक न्याय के लिए ज़्यादा सुसंगत-सुदृढ़ प्रतिनिधियों की जरूरत

किसी भी देश की सबसे बड़ी पूंजी या संसाधन वहां के लोग होते हैं। इसीलिए मानव संसाधन का सर्वागीण विकास किसी भी देश के विकास की प्रक्रिया का सबसे महत्वपूर्ण घटक माना जाता है और शिक्षा के विभिन्न औपचारिक-अनौपचारिक रूप इस प्रक्रिया का मूल आधार होते हैं। ये आधार जितने सुदृढ़, जितने परिपूर्ण और जितने समसामयिक होते हैं, व्यक्ति या मानव संसाधन का विकास भी उतना ही सर्वागीण होता है।
नॉलेज इकॉनॉमी में शिक्षा का महत्व चमत्कारिक रूप से बढ़ा है। आईटी से लेकर मैनेजमेंट और हॉस्पिटालिटी से लेकर डिजाइनिंग, एनिमेशन और ऐसे ही तमाम स्ट्रीम की अच्छी पढ़ाई करने वाले आज सबसे तेजी से अमीर बन रहे हैं। इस रेस में पिछड़े युवा तेजी से पिछड़ रहे हैं। उत्तर प्रदेश के नोएडा और हरियाणा के गुड़गांव के हरियाणा में आपको पढ़े लिखे लोगों की समृद्धि और जमीन बेचकर करोड़ों कमाने वालों की लाइफस्टाइल का फर्क साफ नजर आएगा। ऐसे भी वाकए हैं जब जमीन बेचकर लाखों रुपए कमाने वाला कोई शख्स किसी एक्जिक्यूटिव की कार चला रहा है। अगली पीढ़ी तक ये फासला और बढ़ेगा।

इसी को ध्यान में रखते हुए भारतीय लोकतंत्र का आदर्श स्वतंत्रता, समानता और बन्धुत्व पर आधारित सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था की स्थापना है। लोकतांत्रिक भारत में इस आधार पर किसी को प्रतिष्ठा और अवसर की समानता से वंचित नहीं किया जा सकता कि वह आपसे कम योग्य है। यदि कोई फिलहाल आपसे कम योग्य है तो उसकी संभावना का विकास कीजिए और उसे अपने बराबर की प्रतिष्ठा और अवसर दीजिए ताकि वह आपसे स्वस्थ प्रतियोगिता कर सकने में सक्षम बन सके। “प्रत्येक जीव अव्यक्त ब्रह्म है।” हर मानव में विकास करने की असीम संभावना छिपी होती है, उस संभावना का पता लगाइए और उसका विकास करने का अवसर और माहौल दीजिए। भारतीय संविधान में दलित और पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण का प्रावधान इसीलिए किया गया है।
इसी आधार पर 20 जनवरी, 2006 को अधिनियमित 93वें संविधान संशोधन अधिनियम के द्वारा अंत:स्थापित अनुच्छेद 15(5) के अनुसार, “इस अनुच्छेद या अनुच्छेद 19 के खंड (1) के उप-खंड (छ) की कोई बात राज्य को सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े हुए नागरिकों के किन्हीं वर्गों की उन्नति के लिए या अनुसूचित जातियों या अनुसूचित जनजातियों के लिए विधि द्वारा कोई विशेष उपबंध करने से निवारित नहीं करेगी, जहाँ तक ऐसे विशेष उपबंध, अनुच्छेद 30 के खंड (1) में उल्लिखित अल्पसंख्यक शैक्षिक संस्थानों को छोड़कर, निजी शैक्षिक संस्थानों सहित शैक्षिक संस्थानों, चाहे वे राज्य से सहायता प्राप्त हों या गैर-सहायता प्राप्त हों, में प्रवेश से संबंधित हों।”
पिछड़े वर्गों को परिभाषित करने का सिलसिला वर्ष 1921 में माइसोस्ट्रेट में शुरू हुआ था कालेलकर की रिपोर्ट जब आई तो लोग चाहते थे कि आरक्षण के लिए जाति के आधार लिए जाने चाहिए. 1955 से लेकर 1978 तक मामला इसी बात पर रूका रहा कि हमें जाति के आधार पर हमें आरक्षण देना चाहिए या नहीं। रजनी कोठारी ने कहा था कि हमारे समाज में जाति के विरोध की राजनीति तो हो सकती है, लेकिन जाति बग़ैर नहीं. और ऐसी राजनीति का निशान इसलिए नहीं है कि हमारे समाज में जाति का ठप्पा हर चीज़ पर है
संविधान के अनुच्छेद 15-16 में क्रीमी लेयर का प्रावधान नहीं है। वर्ष 1992 में इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार के फैसले में क्रीमी लेयर की बात कही गई थी। इसके बाद नौकरियों में क्रीमी लेयर को लागू कर दिया गया और अब शिक्षण संस्थाओं में इसको लेकर कुछ भी नहीं हुआ। सरकार ने जिन लोगों को फायेदा दिया है उसमें कमज़ोर तबका इसका लाभ ले नही पायेगा क्यूंकि केवल आरक्षण मिलने भर से जो इन बड़े बड़े संस्थानों के खर्चे हैं वो कम नही होंगे और उन गरीब घरों के बच्चे जो कक्षा 10 से आगे बढ़ने के बारे में सोचते ही नही और सोचते भी हैं तो उन्हें सुविधाएं या कहें कि पैसे ही नही मिलते कि अच्छी जगह जाकर पढाई कर सकें और मोटी मोटी फीस का बोझ उठा सकें। हाँ जो लोग उठा सकते हैं उन्हें इसमें शामिल नही किया गए क्यूंकि वो इतने साधन संपन्न हैं कि उन्हें किसी आरक्षण की ज़रूरत नही है। यानी वो क्रेमी layer में आते हैं। अब सवाल ये उठता है कि ये आरक्षण है तो किसके लिए?
अन्य पिछड़े वर्ग के लोग शायद ही आरक्षण का लाभ उठा पाएँ, क्योंकि समाज और सत्ता में पहले से प्रभावी ऊँची जाति के लोग पिछड़ी जाति के व्यक्तियों को अपेक्षित ओबीसी प्रमाण पत्र ही जारी नहीं होने देंगे। पूरे देश भर में राजस्व अधिकारियों द्वारा ओबीसी प्रमाण पत्र जारी किए जाने की प्रक्रिया में जो भ्रष्टाचार और लालफीताशाही है उसको देखते हुए आय प्रमाण पत्र को आरक्षण का आधार बनाया जाना न्यायोचित भी नहीं है। दूसरी बात यह कि आरक्षण का मूल प्रयोजन पिछड़े वर्गों के शैक्षिक पिछड़ेपन को दूर करना और सत्ता में उनकी भागीदारी को जनसंख्या में उनके अनुपात के स्तर तक बढ़ाना है, ताकि उन्हें संविधान में घोषित प्रतिष्ठा और अवसर की समानता हासिल हो सके। हमारे समाज में प्रतिष्ठा और अवसर की समानता शिक्षा और सत्ता के स्तर के आधार पर तय होती है, न कि आर्थिक आधार पर।

शायद इसी लिए विंध्याचल से दक्षिण के लगभग हर पिछड़ा नेता ने स्कूल कॉलेज से लेकर यूनिवर्सिटी खोलने में दिलचस्पी ली थी और ये सिलसिला अब भी जारी है। लेकिन उत्तर भारत के ज्यादातर पिछड़ा नेता अपने आचरण में शिक्षा विरोधी साबित हुए हैं। उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, आदि राज्यों के अच्छे शिक्षा संस्थान पिछड़ा उभार के इसी दौर में बर्बाद हो गए। इन नेताओं से नए शिक्षा संस्थान बनाने और चलाने की तो आप कल्पना भी नहीं कर सकते। शिक्षा को लेकर उत्तर भारत के पिछड़े नेताओं में एक अजीब सी वितृष्णा आपको साफ नजर आएगी।

1960 के दशक से चली आ रही उत्तर भारत की सबसे मजबूत और प्रभावशाली राजनीतिक धारा के अस्त होने का समय आ गया है। ये धारा समाजवाद, लोहियावाद और कांग्रेस विरोध से शुरू होकर अब आरजेडी, समाजवादी पार्टी, इंडियन नेशनल लोकदल, समता पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, लोक जन शक्ति पार्टी आदि समूहों में खंड खंड हो चुकी है। गैर-कांग्रेसवाद का अंत वैसे ही हो चुका है। टुकड़े टुकड़े में बंट जाना इस राजनीति के अंत का कारण नहीं है। पिछड़ा राजनीति शुरुआत से ही खंड-खंड ही रही है। बुरी बात ये है कि पिछड़ावाद अब अपनी सकारात्मक ऊर्जा यानी समाज और राजनीति को अच्छे के लिए बदलने की क्षमता लगभग खो चुका है। पिछड़ा राजनीति के पतन में दोष किसका है, इसका हिसाब इतिहास लेखक जरूर करेंगे। लेकिन इस मामले में सारा दोष क्या व्यक्तियों का है ? उत्तर भारत के पिछड़े नेता इस मामले में अपने पाप से मुक्त नहीं हो सकते हैं, लेकिन राजनीति की इस महत्वपूर्ण धारा के अन्त के लिए सामाजिक-आर्थिक स्थितियां भी जिम्मेदार हैं।

दरअसल जिसे हम पिछड़ा या गैर-द्विज राजनीति मानते या कहते हैं, वो तमाम पिछड़ी जातियों को समेटने वाली धारा कभी नहीं रही है। खासकर इस राजनीति का नेतृत्व हमेशा ही पिछड़ों में से अगड़ी जातियों ने किया है। कर्पूरी ठाकुर जैसे चंद प्रतीकात्मक अपवादों को छोड़ दें तो इस राजनीति के शिखर पर आपको हमेशा कोई यादव, कोई कुर्मी या कोयरी, कोई जाट, कोई लोध ही नजर आएगा। दरअसल पिछड़ा राजनीति एक ऐसी धारा है जिसका जन्म इसलिए हुआ क्योंकि आजादी के बात पिछड़ी जातियों को राजनीतिक सत्ता में हिस्सेदारी नहीं मिल पा रही थी। अब जबकि इन जातियों के राजनीतिक सशक्तिकरण का काम लगभग पूरा हो चुका है, तो इन जातियों में मौजूदा शक्ति संतुलन को बदलने की न ऊर्जा है, न इच्छा और न ही जरूरत। इस मामले में पिछड़ा राजनीति अब यथास्थिति की समर्थक ताकत है।
सामाजिक न्याय-अभियान को आगे बढ़ाने के उनके नारे ‘खाली कारतूस’ साबित हुए. कईयों पर भ्रष्टाचार और परिवारवाद के गंभीर आरोप लगे. कइयों की शासकीय दृष्टिहीनता ने उनका करिश्मा ख़त्म कर दिया और विचारवान माने गए कुछेक मंडलवादी नेता सामाजिक न्याय का सुदृढ़ीकरण करने की बजाय भाजपा की ‘रामनामी गोद’ में जा बैठे.पर इससे यह निष्कर्ष निकालना गलत होगा कि दलित या पिछड़े वर्ग के प्रतिनिधियों की यही नियति है या कि सिर्फ़ सवर्ण-संभ्रांत समाज के प्रतिनिधि ही देश को सही दिशा दे सकते हैं.सामाजिक न्याय के इन स्वघोषित दूतों के वैचारिक-स्खलन से सिर्फ़ एक बात साफ हुई है कि भारतीय समाज में सामाजिक की विचारधारात्मक लड़ाई के लिए ज़्यादा सुसंगत-सुदृढ़ प्रतिनिधियों की जरूरत है.कई तरह की शक्तियाँ इस दिशा में सक्रिए हैं. कुछ सत्ता राजनीति का हिस्सा हैं तो कुछ ‘बदलाव की राजनीति’ को अपना एजेंडा मानती हैं. बेहतर विकल्प की तलाश करते भारतीय समाज को आर्थिक-प्रगति, सामाजिक न्याय और सुसंगत विकास का रास्ता कौन दिखाएगा इस बारे में भविष्यवाणी करना कठिन है.
सामाजिक न्याय के इन स्वघोषित दूतों के वैचारिक-स्खलन से सिर्फ़ एक बात साफ हुई है कि भारतीय समाज में सामाजिक न्याय की विचारधारात्मक लड़ाई के लिए ज़्यादा सुसंगत-सुदृढ़ प्रतिनिधियों की जरूरत है .कई तरह की शक्तियाँ इस दिशा में सक्रिए हैं. कुछ सत्ता राजनीति का हिस्सा हैं तो कुछ ‘बदलाव की राजनीति’ को अपना एजेंडा मानती हैं. बेहतर विकल्प की तलाश करते भारतीय समाज को आर्थिक-प्रगति, सामाजिक न्याय और सुसंगत विकास का रास्ता कौन दिखाएगा इस बारे में भविष्यवाणी करना कठिन है.पर इससे यह निष्कर्ष निकालना गलत होगा कि दलित या पिछड़े वर्ग के प्रतिनिधियों की यही नियति है या कि सिर्फ़ सवर्ण-संभ्रांत समाज के प्रतिनिधि ही देश को सही दिशा दे सकते हैं.



प्रदीप गोल्याण, Date:- 16. Apr 2008
विश्लेषक एवं लेखक
E-mail: pkdhim@gmail.com
Contact No.- 09315821807

मंगलवार, 15 अप्रैल 2008

सामाजिक न्याय के लिए ज़्यादा सुसंगत-सुदृढ़ प्रतिनिधियों की जरूरत

किसी भी देश की सबसे बड़ी पूंजी या संसाधन वहां के लोग होते हैं। इसीलिए मानव संसाधन का सर्वागीण विकास किसी भी देश के विकास की प्रक्रिया का सबसे महत्वपूर्ण घटक माना जाता है और शिक्षा के विभिन्न औपचारिक-अनौपचारिक रूप इस प्रक्रिया का मूल आधार होते हैं। ये आधार जितने सुदृढ़, जितने परिपूर्ण और जितने समसामयिक होते हैं, व्यक्ति या मानव संसाधन का विकास भी उतना ही सर्वागीण होता है।
नॉलेज इकॉनॉमी में शिक्षा का महत्व चमत्कारिक रूप से बढ़ा है। आईटी से लेकर मैनेजमेंट और हॉस्पिटालिटी से लेकर डिजाइनिंग, एनिमेशन और ऐसे ही तमाम स्ट्रीम की अच्छी पढ़ाई करने वाले आज सबसे तेजी से अमीर बन रहे हैं। इस रेस में पिछड़े युवा तेजी से पिछड़ रहे हैं। उत्तर प्रदेश के नोएडा और हरियाणा के गुड़गांव के हरियाणा में आपको पढ़े लिखे लोगों की समृद्धि और जमीन बेचकर करोड़ों कमाने वालों की लाइफस्टाइल का फर्क साफ नजर आएगा। ऐसे भी वाकए हैं जब जमीन बेचकर लाखों रुपए कमाने वाला कोई शख्स किसी एक्जिक्यूटिव की कार चला रहा है। अगली पीढ़ी तक ये फासला और बढ़ेगा।

इसी को ध्यान में रखते हुए भारतीय लोकतंत्र का आदर्श स्वतंत्रता, समानता और बन्धुत्व पर आधारित सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था की स्थापना है। लोकतांत्रिक भारत में इस आधार पर किसी को प्रतिष्ठा और अवसर की समानता से वंचित नहीं किया जा सकता कि वह आपसे कम योग्य है। यदि कोई फिलहाल आपसे कम योग्य है तो उसकी संभावना का विकास कीजिए और उसे अपने बराबर की प्रतिष्ठा और अवसर दीजिए ताकि वह आपसे स्वस्थ प्रतियोगिता कर सकने में सक्षम बन सके। “प्रत्येक जीव अव्यक्त ब्रह्म है।” हर मानव में विकास करने की असीम संभावना छिपी होती है, उस संभावना का पता लगाइए और उसका विकास करने का अवसर और माहौल दीजिए। भारतीय संविधान में दलित और पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण का प्रावधान इसीलिए किया गया है।
इसी आधार पर 20 जनवरी, 2006 को अधिनियमित 93वें संविधान संशोधन अधिनियम के द्वारा अंत:स्थापित अनुच्छेद 15(5) के अनुसार, “इस अनुच्छेद या अनुच्छेद 19 के खंड (1) के उप-खंड (छ) की कोई बात राज्य को सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े हुए नागरिकों के किन्हीं वर्गों की उन्नति के लिए या अनुसूचित जातियों या अनुसूचित जनजातियों के लिए विधि द्वारा कोई विशेष उपबंध करने से निवारित नहीं करेगी, जहाँ तक ऐसे विशेष उपबंध, अनुच्छेद 30 के खंड (1) में उल्लिखित अल्पसंख्यक शैक्षिक संस्थानों को छोड़कर, निजी शैक्षिक संस्थानों सहित शैक्षिक संस्थानों, चाहे वे राज्य से सहायता प्राप्त हों या गैर-सहायता प्राप्त हों, में प्रवेश से संबंधित हों।”
अब हायर एजुकेशन के केंद्रीय संस्थानों में 27 फीसदी ओबीसी रिजर्वेशन को लागू किया जा रहा है। दिलचस्प बात यह है कि इस बार यह प्रस्ताव कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार की ओर से आया है। हालाँकि इस मामले में सरकार के इरादे की गंभीरता संदेह के दायरे में है। संविधान के अनुच्छेद 15(5) के अधीन केन्द्रीय विश्वविद्यालयों और केन्द्र सरकार द्वारा वित्तपोषित व निजि शैक्षिक संस्थाओं में अन्य पिछड़े वर्ग के छात्रों को 27% आरक्षण दिए जाने का मौजूदा प्रस्ताव मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह की ओर से आया है जो मौजूदा सरकार और कांग्रेस पार्टी में इतनी प्रभावी स्थिति में नहीं हैं कि इस प्रस्ताव को अपने दम पर कार्यान्वित करवा सकें।
अर्जुन सिंह ने कहा कि संस्थानों को उनकी तैयारी के मुताबिक चरणबद्ध तरीके से आरक्षण लागू करने की छूट होगी। संस्थानों को तीन साल में 27 प्रतिशत आरक्षण देना अनिवार्य होगा। जिस संस्थान की तैयारी पूरी होगी वह एक बार में ही 27 फीसदी आरक्षण लागू कर सकता है। संस्थानों को वीरप्पा मोइली कमेटी के फामरूले के मुताबिक ओबीसी आरक्षण के लिए सीटों में 54 फीसदी का इजाफा करना था।
पिछड़े वर्गों को परिभाषित करने का सिलसिला वर्ष 1921 में माइसोस्ट्रेट में शुरू हुआ था कालेलकर की रिपोर्ट जब आई तो लोग चाहते थे कि आरक्षण के लिए जाति के आधार लिए जाने चाहिए. 1955 से लेकर 1978 तक मामला इसी बात पर रूका रहा कि हमें जाति के आधार पर हमें आरक्षण देना चाहिए या नहीं। रजनी कोठारी ने कहा था कि हमारे समाज में जाति के विरोध की राजनीति तो हो सकती है, लेकिन जाति बग़ैर नहीं. और ऐसी राजनीति का निशान इसलिए नहीं है कि हमारे समाज में जाति का ठप्पा हर चीज़ पर है
संविधान के अनुच्छेद 15-16 में क्रीमी लेयर का प्रावधान नहीं है। वर्ष 1992 में इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार के फैसले में क्रीमी लेयर की बात कही गई थी। इसके बाद नौकरियों में क्रीमी लेयर को लागू कर दिया गया और अब शिक्षण संस्थाओं में इसको लेकर कुछ भी नहीं हुआ। सरकार ने जिन लोगों को फायेदा दिया है उसमें कमज़ोर तबका इसका लाभ ले नही पायेगा क्यूंकि केवल आरक्षण मिलने भर से जो इन बड़े बड़े संस्थानों के खर्चे हैं वो कम नही होंगे और उन गरीब घरों के बच्चे जो कक्षा 10 से आगे बढ़ने के बारे में सोचते ही नही और सोचते भी हैं तो उन्हें सुविधाएं या कहें कि पैसे ही नही मिलते कि अच्छी जगह जाकर पढाई कर सकें और मोटी मोटी फीस का बोझ उठा सकें। हाँ जो लोग उठा सकते हैं उन्हें इसमें शामिल नही किया गए क्यूंकि वो इतने साधन संपन्न हैं कि उन्हें किसी आरक्षण की ज़रूरत नही है। यानी वो क्रेमी layer में आते हैं। अब सवाल ये उठता है कि ये आरक्षण है तो किसके लिए?
अन्य पिछड़े वर्ग के लोग शायद ही आरक्षण का लाभ उठा पाएँ, क्योंकि समाज और सत्ता में पहले से प्रभावी ऊँची जाति के लोग पिछड़ी जाति के व्यक्तियों को अपेक्षित ओबीसी प्रमाण पत्र ही जारी नहीं होने देंगे। पूरे देश भर में राजस्व अधिकारियों द्वारा ओबीसी प्रमाण पत्र जारी किए जाने की प्रक्रिया में जो भ्रष्टाचार और लालफीताशाही है उसको देखते हुए आय प्रमाण पत्र को आरक्षण का आधार बनाया जाना न्यायोचित भी नहीं है। दूसरी बात यह कि आरक्षण का मूल प्रयोजन पिछड़े वर्गों के शैक्षिक पिछड़ेपन को दूर करना और सत्ता में उनकी भागीदारी को जनसंख्या में उनके अनुपात के स्तर तक बढ़ाना है, ताकि उन्हें संविधान में घोषित प्रतिष्ठा और अवसर की समानता हासिल हो सके। हमारे समाज में प्रतिष्ठा और अवसर की समानता शिक्षा और सत्ता के स्तर के आधार पर तय होती है, न कि आर्थिक आधार पर।
शायद इसी लिए विंध्याचल से दक्षिण के लगभग हर पिछड़ा नेता ने स्कूल कॉलेज से लेकर यूनिवर्सिटी खोलने में दिलचस्पी ली थी और ये सिलसिला अब भी जारी है। लेकिन उत्तर भारत के ज्यादातर पिछड़ा नेता अपने आचरण में शिक्षा विरोधी साबित हुए हैं। उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, आदि राज्यों के अच्छे शिक्षा संस्थान पिछड़ा उभार के इसी दौर में बर्बाद हो गए। इन नेताओं से नए शिक्षा संस्थान बनाने और चलाने की तो आप कल्पना भी नहीं कर सकते। शिक्षा को लेकर उत्तर भारत के पिछड़े नेताओं में एक अजीब सी वितृष्णा आपको साफ नजर आएगी।
1960 के दशक से चली आ रही उत्तर भारत की सबसे मजबूत और प्रभावशाली राजनीतिक धारा के अस्त होने का समय आ गया है। ये धारा समाजवाद, लोहियावाद और कांग्रेस विरोध से शुरू होकर अब आरजेडी, समाजवादी पार्टी, इंडियन नेशनल लोकदल, समता पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, लोक जन शक्ति पार्टी आदि समूहों में खंड खंड हो चुकी है। गैर-कांग्रेसवाद का अंत वैसे ही हो चुका है। टुकड़े टुकड़े में बंट जाना इस राजनीति के अंत का कारण नहीं है। पिछड़ा राजनीति शुरुआत से ही खंड-खंड ही रही है। बुरी बात ये है कि पिछड़ावाद अब अपनी सकारात्मक ऊर्जा यानी समाज और राजनीति को अच्छे के लिए बदलने की क्षमता लगभग खो चुका है। पिछड़ा राजनीति के पतन में दोष किसका है, इसका हिसाब इतिहास लेखक जरूर करेंगे। लेकिन इस मामले में सारा दोष क्या व्यक्तियों का है ? उत्तर भारत के पिछड़े नेता इस मामले में अपने पाप से मुक्त नहीं हो सकते हैं, लेकिन राजनीति की इस महत्वपूर्ण धारा के अन्त के लिए सामाजिक-आर्थिक स्थितियां भी जिम्मेदार हैं।
दरअसल जिसे हम पिछड़ा या गैर-द्विज राजनीति मानते या कहते हैं, वो तमाम पिछड़ी जातियों को समेटने वाली धारा कभी नहीं रही है। खासकर इस राजनीति का नेतृत्व हमेशा ही पिछड़ों में से अगड़ी जातियों ने किया है। कर्पूरी ठाकुर जैसे चंद प्रतीकात्मक अपवादों को छोड़ दें तो इस राजनीति के शिखर पर आपको हमेशा कोई यादव, कोई कुर्मी या कोयरी, कोई जाट, कोई लोध ही नजर आएगा। दरअसल पिछड़ा राजनीति एक ऐसी धारा है जिसका जन्म इसलिए हुआ क्योंकि आजादी के बात पिछड़ी जातियों को राजनीतिक सत्ता में हिस्सेदारी नहीं मिल पा रही थी। अब जबकि इन जातियों के राजनीतिक सशक्तिकरण का काम लगभग पूरा हो चुका है, तो इन जातियों में मौजूदा शक्ति संतुलन को बदलने की न ऊर्जा है, न इच्छा और न ही जरूरत। इस मामले में पिछड़ा राजनीति अब यथास्थिति की समर्थक ताकत है।
सामाजिक न्याय-अभियान को आगे बढ़ाने के उनके नारे ‘खाली कारतूस’ साबित हुए. कईयों पर भ्रष्टाचार और परिवारवाद के गंभीर आरोप लगे. कइयों की शासकीय दृष्टिहीनता ने उनका करिश्मा ख़त्म कर दिया और विचारवान माने गए कुछेक मंडलवादी नेता सामाजिक न्याय का सुदृढ़ीकरण करने की बजाय भाजपा की ‘रामनामी गोद’ में जा बैठे.पर इससे यह निष्कर्ष निकालना गलत होगा कि दलित या पिछड़े वर्ग के प्रतिनिधियों की यही नियति है या कि सिर्फ़ सवर्ण-संभ्रांत समाज के प्रतिनिधि ही देश को सही दिशा दे सकते हैं.सामाजिक न्याय के इन स्वघोषित दूतों के वैचारिक-स्खलन से सिर्फ़ एक बात साफ हुई है कि भारतीय समाज में सामाजिक की विचारधारात्मक लड़ाई के लिए ज़्यादा सुसंगत-सुदृढ़ प्रतिनिधियों की जरूरत है.कई तरह की शक्तियाँ इस दिशा में सक्रिए हैं. कुछ सत्ता राजनीति का हिस्सा हैं तो कुछ ‘बदलाव की राजनीति’ को अपना एजेंडा मानती हैं. बेहतर विकल्प की तलाश करते भारतीय समाज को आर्थिक-प्रगति, सामाजिक न्याय और सुसंगत विकास का रास्ता कौन दिखाएगा इस बारे में भविष्यवाणी करना कठिन है.
सामाजिक न्याय के इन स्वघोषित दूतों के वैचारिक-स्खलन से सिर्फ़ एक बात साफ हुई है कि भारतीय समाज में सामाजिक न्याय की विचारधारात्मक लड़ाई के लिए ज़्यादा सुसंगत-सुदृढ़ प्रतिनिधियों की जरूरत है ।कई तरह की शक्तियाँ इस दिशा में सक्रिए हैं. कुछ सत्ता राजनीति का हिस्सा हैं तो कुछ ‘बदलाव की राजनीति’ को अपना एजेंडा मानती हैं. बेहतर विकल्प की तलाश करते भारतीय समाज को आर्थिक-प्रगति, सामाजिक न्याय और सुसंगत विकास का रास्ता कौन दिखाएगा इस बारे में भविष्यवाणी करना कठिन है.पर इससे यह निष्कर्ष निकालना गलत होगा कि दलित या पिछड़े वर्ग के प्रतिनिधियों की यही नियति है या कि सिर्फ़ सवर्ण-संभ्रांत समाज के प्रतिनिधि ही देश को सही दिशा दे सकते हैं.

प्रदीप गोल्याण, Date:- 16. Apr 2008
विश्लेषक एवं लेखक
E-mail: pkdhim@gmail.com
Contact No.- 09315821807

सामाजिक न्याय के लिए ज़्यादा सुसंगत-सुदृढ़ प्रतिनिधियों की जरूरत

किसी भी देश की सबसे बड़ी पूंजी या संसाधन वहां के लोग होते हैं। इसीलिए मानव संसाधन का सर्वागीण विकास किसी भी देश के विकास की प्रक्रिया का सबसे महत्वपूर्ण घटक माना जाता है और शिक्षा के विभिन्न औपचारिक-अनौपचारिक रूप इस प्रक्रिया का मूल आधार होते हैं। ये आधार जितने सुदृढ़, जितने परिपूर्ण और जितने समसामयिक होते हैं, व्यक्ति या मानव संसाधन का विकास भी उतना ही सर्वागीण होता है।
नॉलेज इकॉनॉमी में शिक्षा का महत्व चमत्कारिक रूप से बढ़ा है। आईटी से लेकर मैनेजमेंट और हॉस्पिटालिटी से लेकर डिजाइनिंग, एनिमेशन और ऐसे ही तमाम स्ट्रीम की अच्छी पढ़ाई करने वाले आज सबसे तेजी से अमीर बन रहे हैं। इस रेस में पिछड़े युवा तेजी से पिछड़ रहे हैं। उत्तर प्रदेश के नोएडा और हरियाणा के गुड़गांव के हरियाणा में आपको पढ़े लिखे लोगों की समृद्धि और जमीन बेचकर करोड़ों कमाने वालों की लाइफस्टाइल का फर्क साफ नजर आएगा। ऐसे भी वाकए हैं जब जमीन बेचकर लाखों रुपए कमाने वाला कोई शख्स किसी एक्जिक्यूटिव की कार चला रहा है। अगली पीढ़ी तक ये फासला और बढ़ेगा।

इसी को ध्यान में रखते हुए भारतीय लोकतंत्र का आदर्श स्वतंत्रता, समानता और बन्धुत्व पर आधारित सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था की स्थापना है। लोकतांत्रिक भारत में इस आधार पर किसी को प्रतिष्ठा और अवसर की समानता से वंचित नहीं किया जा सकता कि वह आपसे कम योग्य है। यदि कोई फिलहाल आपसे कम योग्य है तो उसकी संभावना का विकास कीजिए और उसे अपने बराबर की प्रतिष्ठा और अवसर दीजिए ताकि वह आपसे स्वस्थ प्रतियोगिता कर सकने में सक्षम बन सके। “प्रत्येक जीव अव्यक्त ब्रह्म है।” हर मानव में विकास करने की असीम संभावना छिपी होती है, उस संभावना का पता लगाइए और उसका विकास करने का अवसर और माहौल दीजिए। भारतीय संविधान में दलित और पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण का प्रावधान इसीलिए किया गया है।
इसी आधार पर 20 जनवरी, 2006 को अधिनियमित 93वें संविधान संशोधन अधिनियम के द्वारा अंत:स्थापित अनुच्छेद 15(5) के अनुसार, “इस अनुच्छेद या अनुच्छेद 19 के खंड (1) के उप-खंड (छ) की कोई बात राज्य को सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े हुए नागरिकों के किन्हीं वर्गों की उन्नति के लिए या अनुसूचित जातियों या अनुसूचित जनजातियों के लिए विधि द्वारा कोई विशेष उपबंध करने से निवारित नहीं करेगी, जहाँ तक ऐसे विशेष उपबंध, अनुच्छेद 30 के खंड (1) में उल्लिखित अल्पसंख्यक शैक्षिक संस्थानों को छोड़कर, निजी शैक्षिक संस्थानों सहित शैक्षिक संस्थानों, चाहे वे राज्य से सहायता प्राप्त हों या गैर-सहायता प्राप्त हों, में प्रवेश से संबंधित हों।”
अब हायर एजुकेशन के केंद्रीय संस्थानों में 27 फीसदी ओबीसी रिजर्वेशन को लागू किया जा रहा है। दिलचस्प बात यह है कि इस बार यह प्रस्ताव कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार की ओर से आया है। हालाँकि इस मामले में सरकार के इरादे की गंभीरता संदेह के दायरे में है। संविधान के अनुच्छेद 15(5) के अधीन केन्द्रीय विश्वविद्यालयों और केन्द्र सरकार द्वारा वित्तपोषित व निजि शैक्षिक संस्थाओं में अन्य पिछड़े वर्ग के छात्रों को 27% आरक्षण दिए जाने का मौजूदा प्रस्ताव मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह की ओर से आया है जो मौजूदा सरकार और कांग्रेस पार्टी में इतनी प्रभावी स्थिति में नहीं हैं कि इस प्रस्ताव को अपने दम पर कार्यान्वित करवा सकें।
अर्जुन सिंह ने कहा कि संस्थानों को उनकी तैयारी के मुताबिक चरणबद्ध तरीके से आरक्षण लागू करने की छूट होगी। संस्थानों को तीन साल में 27 प्रतिशत आरक्षण देना अनिवार्य होगा। जिस संस्थान की तैयारी पूरी होगी वह एक बार में ही 27 फीसदी आरक्षण लागू कर सकता है। संस्थानों को वीरप्पा मोइली कमेटी के फामरूले के मुताबिक ओबीसी आरक्षण के लिए सीटों में 54 फीसदी का इजाफा करना था।
पिछड़े वर्गों को परिभाषित करने का सिलसिला वर्ष 1921 में माइसोस्ट्रेट में शुरू हुआ था कालेलकर की रिपोर्ट जब आई तो लोग चाहते थे कि आरक्षण के लिए जाति के आधार लिए जाने चाहिए. 1955 से लेकर 1978 तक मामला इसी बात पर रूका रहा कि हमें जाति के आधार पर हमें आरक्षण देना चाहिए या नहीं। रजनी कोठारी ने कहा था कि हमारे समाज में जाति के विरोध की राजनीति तो हो सकती है, लेकिन जाति बग़ैर नहीं. और ऐसी राजनीति का निशान इसलिए नहीं है कि हमारे समाज में जाति का ठप्पा हर चीज़ पर है
संविधान के अनुच्छेद 15-16 में क्रीमी लेयर का प्रावधान नहीं है। वर्ष 1992 में इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार के फैसले में क्रीमी लेयर की बात कही गई थी। इसके बाद नौकरियों में क्रीमी लेयर को लागू कर दिया गया और अब शिक्षण संस्थाओं में इसको लेकर कुछ भी नहीं हुआ। सरकार ने जिन लोगों को फायेदा दिया है उसमें कमज़ोर तबका इसका लाभ ले नही पायेगा क्यूंकि केवल आरक्षण मिलने भर से जो इन बड़े बड़े संस्थानों के खर्चे हैं वो कम नही होंगे और उन गरीब घरों के बच्चे जो कक्षा 10 से आगे बढ़ने के बारे में सोचते ही नही और सोचते भी हैं तो उन्हें सुविधाएं या कहें कि पैसे ही नही मिलते कि अच्छी जगह जाकर पढाई कर सकें और मोटी मोटी फीस का बोझ उठा सकें। हाँ जो लोग उठा सकते हैं उन्हें इसमें शामिल नही किया गए क्यूंकि वो इतने साधन संपन्न हैं कि उन्हें किसी आरक्षण की ज़रूरत नही है। यानी वो क्रेमी layer में आते हैं। अब सवाल ये उठता है कि ये आरक्षण है तो किसके लिए?
अन्य पिछड़े वर्ग के लोग शायद ही आरक्षण का लाभ उठा पाएँ, क्योंकि समाज और सत्ता में पहले से प्रभावी ऊँची जाति के लोग पिछड़ी जाति के व्यक्तियों को अपेक्षित ओबीसी प्रमाण पत्र ही जारी नहीं होने देंगे। पूरे देश भर में राजस्व अधिकारियों द्वारा ओबीसी प्रमाण पत्र जारी किए जाने की प्रक्रिया में जो भ्रष्टाचार और लालफीताशाही है उसको देखते हुए आय प्रमाण पत्र को आरक्षण का आधार बनाया जाना न्यायोचित भी नहीं है। दूसरी बात यह कि आरक्षण का मूल प्रयोजन पिछड़े वर्गों के शैक्षिक पिछड़ेपन को दूर करना और सत्ता में उनकी भागीदारी को जनसंख्या में उनके अनुपात के स्तर तक बढ़ाना है, ताकि उन्हें संविधान में घोषित प्रतिष्ठा और अवसर की समानता हासिल हो सके। हमारे समाज में प्रतिष्ठा और अवसर की समानता शिक्षा और सत्ता के स्तर के आधार पर तय होती है, न कि आर्थिक आधार पर।
शायद इसी लिए विंध्याचल से दक्षिण के लगभग हर पिछड़ा नेता ने स्कूल कॉलेज से लेकर यूनिवर्सिटी खोलने में दिलचस्पी ली थी और ये सिलसिला अब भी जारी है। लेकिन उत्तर भारत के ज्यादातर पिछड़ा नेता अपने आचरण में शिक्षा विरोधी साबित हुए हैं। उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, आदि राज्यों के अच्छे शिक्षा संस्थान पिछड़ा उभार के इसी दौर में बर्बाद हो गए। इन नेताओं से नए शिक्षा संस्थान बनाने और चलाने की तो आप कल्पना भी नहीं कर सकते। शिक्षा को लेकर उत्तर भारत के पिछड़े नेताओं में एक अजीब सी वितृष्णा आपको साफ नजर आएगी।
1960 के दशक से चली आ रही उत्तर भारत की सबसे मजबूत और प्रभावशाली राजनीतिक धारा के अस्त होने का समय आ गया है। ये धारा समाजवाद, लोहियावाद और कांग्रेस विरोध से शुरू होकर अब आरजेडी, समाजवादी पार्टी, इंडियन नेशनल लोकदल, समता पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, लोक जन शक्ति पार्टी आदि समूहों में खंड खंड हो चुकी है। गैर-कांग्रेसवाद का अंत वैसे ही हो चुका है। टुकड़े टुकड़े में बंट जाना इस राजनीति के अंत का कारण नहीं है। पिछड़ा राजनीति शुरुआत से ही खंड-खंड ही रही है। बुरी बात ये है कि पिछड़ावाद अब अपनी सकारात्मक ऊर्जा यानी समाज और राजनीति को अच्छे के लिए बदलने की क्षमता लगभग खो चुका है। पिछड़ा राजनीति के पतन में दोष किसका है, इसका हिसाब इतिहास लेखक जरूर करेंगे। लेकिन इस मामले में सारा दोष क्या व्यक्तियों का है ? उत्तर भारत के पिछड़े नेता इस मामले में अपने पाप से मुक्त नहीं हो सकते हैं, लेकिन राजनीति की इस महत्वपूर्ण धारा के अन्त के लिए सामाजिक-आर्थिक स्थितियां भी जिम्मेदार हैं।
दरअसल जिसे हम पिछड़ा या गैर-द्विज राजनीति मानते या कहते हैं, वो तमाम पिछड़ी जातियों को समेटने वाली धारा कभी नहीं रही है। खासकर इस राजनीति का नेतृत्व हमेशा ही पिछड़ों में से अगड़ी जातियों ने किया है। कर्पूरी ठाकुर जैसे चंद प्रतीकात्मक अपवादों को छोड़ दें तो इस राजनीति के शिखर पर आपको हमेशा कोई यादव, कोई कुर्मी या कोयरी, कोई जाट, कोई लोध ही नजर आएगा। दरअसल पिछड़ा राजनीति एक ऐसी धारा है जिसका जन्म इसलिए हुआ क्योंकि आजादी के बात पिछड़ी जातियों को राजनीतिक सत्ता में हिस्सेदारी नहीं मिल पा रही थी। अब जबकि इन जातियों के राजनीतिक सशक्तिकरण का काम लगभग पूरा हो चुका है, तो इन जातियों में मौजूदा शक्ति संतुलन को बदलने की न ऊर्जा है, न इच्छा और न ही जरूरत। इस मामले में पिछड़ा राजनीति अब यथास्थिति की समर्थक ताकत है।
सामाजिक न्याय-अभियान को आगे बढ़ाने के उनके नारे ‘खाली कारतूस’ साबित हुए. कईयों पर भ्रष्टाचार और परिवारवाद के गंभीर आरोप लगे. कइयों की शासकीय दृष्टिहीनता ने उनका करिश्मा ख़त्म कर दिया और विचारवान माने गए कुछेक मंडलवादी नेता सामाजिक न्याय का सुदृढ़ीकरण करने की बजाय भाजपा की ‘रामनामी गोद’ में जा बैठे.पर इससे यह निष्कर्ष निकालना गलत होगा कि दलित या पिछड़े वर्ग के प्रतिनिधियों की यही नियति है या कि सिर्फ़ सवर्ण-संभ्रांत समाज के प्रतिनिधि ही देश को सही दिशा दे सकते हैं.सामाजिक न्याय के इन स्वघोषित दूतों के वैचारिक-स्खलन से सिर्फ़ एक बात साफ हुई है कि भारतीय समाज में सामाजिक की विचारधारात्मक लड़ाई के लिए ज़्यादा सुसंगत-सुदृढ़ प्रतिनिधियों की जरूरत है.कई तरह की शक्तियाँ इस दिशा में सक्रिए हैं. कुछ सत्ता राजनीति का हिस्सा हैं तो कुछ ‘बदलाव की राजनीति’ को अपना एजेंडा मानती हैं. बेहतर विकल्प की तलाश करते भारतीय समाज को आर्थिक-प्रगति, सामाजिक न्याय और सुसंगत विकास का रास्ता कौन दिखाएगा इस बारे में भविष्यवाणी करना कठिन है.
सामाजिक न्याय के इन स्वघोषित दूतों के वैचारिक-स्खलन से सिर्फ़ एक बात साफ हुई है कि भारतीय समाज में सामाजिक न्याय की विचारधारात्मक लड़ाई के लिए ज़्यादा सुसंगत-सुदृढ़ प्रतिनिधियों की जरूरत है ।कई तरह की शक्तियाँ इस दिशा में सक्रिए हैं. कुछ सत्ता राजनीति का हिस्सा हैं तो कुछ ‘बदलाव की राजनीति’ को अपना एजेंडा मानती हैं. बेहतर विकल्प की तलाश करते भारतीय समाज को आर्थिक-प्रगति, सामाजिक न्याय और सुसंगत विकास का रास्ता कौन दिखाएगा इस बारे में भविष्यवाणी करना कठिन है.पर इससे यह निष्कर्ष निकालना गलत होगा कि दलित या पिछड़े वर्ग के प्रतिनिधियों की यही नियति है या कि सिर्फ़ सवर्ण-संभ्रांत समाज के प्रतिनिधि ही देश को सही दिशा दे सकते हैं.

प्रदीप गोल्याण, Date:- 16. Apr 2008
विश्लेषक एवं लेखक
E-mail: pkdhim@gmail.com
Contact No.- 09315821807

सोमवार, 14 अप्रैल 2008

सामाजिक न्याय:- जटिल सामाजिक प्रस्थिति और राजनीति

हायर एजुकेशन के केंद्रीय संस्थानों में 27 फीसदी ओबीसी रिजर्वेशन पर सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ का फैसला यूपीए सरकार को 'ऐतिहासिक' लग सकता है, लेकिन सच तो यह है कि बहस यहीं पर खत्म होने वाली नहीं है। असल मुद्दा यह है कि क्या कोटा सिस्टम वंचित जातियों को आगे लाने का अकेला ओर सबसे अच्छा तरीका है? इस सवाल से हमारा गणतंत्र जूझता रहेगा, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट का फैसला इस बड़ी बहस (जिसे राजनीति ने सामाजिक न्याय के दर्जे से हटाकर एक भेदभावकारी समस्या में बदल डाला है) के सिर्फ एक हिस्से का जवाब पेश करता है। वह हिस्सा यह है कि सरकार की रिजर्वेशन पॉलिसी संविधान के खिलाफ नहीं जाती।
भारतीय समाज इतना जटिल है कि उसे ब्लैक एंड व्हाइट के नज़रिए से देखा नहीं जा सकता. आर्थिक विषमता, दुरूह व जटिल सामाजिक प्रस्थिति और इसका दोहन करती राजनीति. इन सबके मद्देनज़र संविधान आरक्षण के समर्थन में है। संविधान में आरक्षण-व्यवस्था बहुत सोच-समझ कर की गई थी। सदियों की जड़ जाति-व्यवस्था के अन्यायों को दूर करना और घोर विषम समाज को समतामूलक समाज में बदलना इसका लक्ष्य था। भारतीय संविधान के निर्माता आदरणीय भीमराम अम्बेदकर जी ने हिन्दू धर्म की अस्पृश्यता की नीति के कारण बहुत कुछ सहा था, उन्होंने आरक्षण नीति की परिकल्पना की और लागू किया जिसका मूल उद्देश्य अछूत समझी जानेवाली अनुसूचित जाति और आदिम अधिवासी, वनवासी अर्थात् अनुसूचित जनजाति और पिछड़े वर्गों के लोगों को कुछ विशेष सुविधाएँ तथा रियायत देकर सामान्य लोगों के बराबर लाना था। लेकिन इस नीति का मूल उद्देश्य भटक गया है। भारतीय नवजागरण के प्रणेता स्वामी दयानंद सरस्वती, ज्योतिबा फुले, महादेव गोविंद रानाडे, गोपाल कृष्ण गोखले, जानकीनाथ घोषाल आदि से लेकर महात्मा गांधी, डा. भीमराव अंबेडकर और डा. राममनोहर लोहिया तक के नेताओं के विचारों तथा संघर्ष ने इसका स्वरूप निश्चित किया था। लेकिन नेहरू सरकार से लेकर वर्तमान सरकार तक किसी ने भी इसे समझने और ठीक प्रकार से लागू कने की कोशिश नहीं की। इसके विपरीत इसमें एक के बाद एक गांठे डालकर इसे उलझाया जाता रहा।
संविधान के अनुच्छेद 46 के अंतर्गत राज्य की नीति के निदेशक तत्व के रूप में उपबंध किया गया कि “राज्य, जनता के दुर्बल वर्गों के, विशिष्टतया, अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों और पिछड़े वर्गों के शिक्षा और अर्थ संबंधी हितों की विशेष सावधानी से अभिवृद्धि करेगा और सामाजिक अन्याय और सभी प्रकार के शोषण से उनकी संरक्षा करेगा।” सरकार ने अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के उत्थान और उनको समानता के स्तर पर लाने के लिए कई आवश्यक कदम तुरंत उठा लिए और यह सिलसिला अब भी जारी है। अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए सरकारी सेवाओं में सीधी भर्ती के मामले में आरक्षण 21 सितम्बर, 1947 से और पदोन्नति के मामले में आरक्षण 4 जनवरी, 1957 से ही लागू है। लेकिन आरक्षण के लाभ से सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े अन्य वर्गों के बहुसंख्यक लोगों को वंचित ही रखा गया, क्योंकि कई दशकों तक इन पिछड़े वर्गों की स्पष्ट पहचान ही स्थापित नहीं हो सकी। हालाँकि संविधान में इसके लिए स्पष्ट उपबंध मौजूद रहे हैं।
अनुच्छेद 340 का अनुपालन करते हुए पहली बार राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद ने 29 जनवरी, 1953 को काका कालेलकर की अध्यक्षता में पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन किया। इस आयोग ने अपनी सिफारिशें 30 मार्च, 1955 को सरकार को सौंप दी। इस आयोग ने सभी महिलाओं को पिछड़ी जाति के अंतर्गत शामिल किए जाने और सभी तकनीकी एवं व्यावसायिक शिक्षा संस्थानों में पिछड़े वर्गों के लिए 70% सीटों के आरक्षण की सिफारिश की थी। इसके अलावा सभी सरकारी सेवाओं और स्थानीय निकायों में क्लास I पदों के लिए 25%, क्लास II पदों के लिए 33.5% तथा क्लास III और IV पदों के लिए 40% स्थान पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षित करने की सिफारिश की गई थी। यदि भारतीय समाज में पिछड़े वर्गों की जनसंख्या के आधार पर शिक्षा और सेवा में उनको वास्तविक प्रतिनिधित्व देने की बात की जाए तो वे सिफारिशें बहुत हद तक न्यायसंगत थीं।
1979 में फिर यह मामला उठा और मंडल कमीशन बनाया गया. देश की राजनीति में बहुत बड़ी तब्दीलियाँ लाने की संभावनाएं पैदा की थीं क्योंकि मंडल कमीशन की 12 सिफारिशें थीं. एक सिफारिश थी कि नौकरियों में आरक्षण दिया जाए. लेकिन बाक़ी 11 सिफारिशें बुनियादी तब्दीली की थी. उसमें कहा गया था कि भूमि सुधार होना चाहिए, शिक्षा व्यवस्था बदलनी चाहिए और प्रशासन को बदलना चाहिए. जब रिपोर्ट मान ली गई, तो समझा गया कि समूची रिपोर्ट मान ली जाएगी और उसको चुनिंदा तरीके से कार्यान्वित किया जाएगा. लेकिन दुर्भाग्य है कि उसके मात्र एक सुझाव जो नौकरियों में आरक्षण की थी, उसी पर ज़ोर दिया गया. नतीजा ये हुआ कि वो सब क्राँतिकारी संभावनाएँ थीं वह सब बुझ गई.
जैसा कि मंडल मामले में हुआ, इस बार भी अदालत ने बीच का रास्ता चुना है। उसने कोटे की इजाजत देते हुए क्रीमी लेयर को बाहर रखने की शर्त लगा दी है। हालांकि यह याद करना भी जरूरी है कि न तो सरकार ने क्रीमी लेयर की शर्त को कभी पसंद किया है और न ही इस व्यवस्था के तहत जातियों की लिस्ट में समय-समय पर सुधार की जरूरत को गंभीरता से लिया है। कुल मिलाकर सरकार का रवैया ऐसी बंदिश को लेकर बगावती रहा है और इसलिए हमारे यहां नई जातियां तो रिजर्वेशन की लिस्ट में घुसती रहती हैं, लेकिन किसी को इस आधार पर बाहर का रास्ता नहीं दिखाया जाता कि उसके लिए कोटे की जरूरत खत्म हो चुकी है।

1950 में पिछड़े वर्ग में कुल 1373 जातियां थीं। पहला पिछड़ा वर्ग आयोग 1955 में बना जिसके मुताबिक पिछड़ी जातियों की संख्या 2399 थी। मंडल कमीशन के मुताबिक वर्ष 1980 में 3743 जातियां पिछड़े वर्ग की सूची में थीं। राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग की वर्ष 2006 की रिपोर्ट के मुताबिक 5013 जातियां पिछड़ी हैं। अतः लगातार पिछड़ी जातियों की संख्या बढ़ती जा रही है
सवाल यह है कि पिछले डेढ़ दशकों से चल रही मंडलवादी आरक्षण की राजनीति का हासिल अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए क्या रहा है? जबकि इस वर्ग का एक बड़ा हिस्सा उत्तर भारत के गांवों में सामाजिक पिछड़ापन व भयंकर गरीबी झेल रहा है। मंडल रिपोर्ट के अनुसार ओबीसी की अनुमानित आबादी 52 प्रतिशत है लेकिन सरकारी नौकरियों में उन्हें हम महज 4.51 प्रतिशत आरक्षण दे पाए हैं। 22.5 प्रतिशत आबादी वाली अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति का 1980 (पिछड़ा वर्ग आयोग रिपोर्ट, 1980, भाग-I, पृष्ट 42) में सरकारी नौकरियों में प्रतिशत 18.71 था। जबकि 52.2 प्रतिशत आबादी वाली ओबीसी का प्रतिशत 12.55 था ।

आरक्षण की व्यवस्था पूरे पिछड़े वर्गों की सामाजिक स्थिति को बदलने का आधार न तो थी और न हो सकती है. आरक्षण की व्यवस्था ग़रीबी की समस्या का समाधान भी न तो कभी थी न बन सकती है. कुछ सरकारी महकमों और शैक्षणिक संस्थाओं में आरक्षण की व्यवस्था इस उद्देश्य से बनाई गई थी कि समाज में, राजनीति में और आधुनिक अर्थव्यवस्था के जो शीर्ष पद हैं, उनमें जो सत्ता का केंद्र है, वहाँ दलित समाज और पिछड़े वर्गों की एक न्यूनतम उपस्थिति बन सके.इस उद्देश्य को लेकर चलाई गई यह व्यवस्था इस न्यूनतम उद्देश्य में सफल रही है


आरक्षण संबंधी समस्याएं इसलिए अब तक बनी हुई हैं क्योंकि हमने संविधान की आरक्षण व्यवस्था को लागू करने के लिए शुरू से ही वैज्ञानिक प्रक्रिया का अनुसरण नहीं किया। इस व्यवस्था को सही ढंग से लागू करने के लिए जरूरी था कि जातियों की सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक स्थिति के आंकड़ें जमा किए जाएं और उनके आधार पर जातियों का अगड़े, पिछड़े, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति आदि श्रेणियों में वर्गीकरण किया जाए। प्रत्येक जनगणना के साथ ये आंकड़ें जमा किए जाएं और हर दस साल बाद आंकड़ों के विश्लेषण से पता लगाया जाए कि किन जातियों को संविधान के अनुच्छेत 16(4) के अनुसार नौकरियों आदि में ‘पर्याप्त प्रतिनिधित्व’ मिल गया है और जिन्हें मिल गया हो उन्हें आरक्षण की परिधि से बाहर किया जाए। इस प्रकार उत्तरोत्तर निचली जातियों को आरक्षण की सुविधा मिलती जाती। कालांतर में सभी जातियों को ‘पर्याप्त प्रतिनिधित्व’ मिल जाता तथा आरक्षण व्यवस्था स्वत: समाप्त हो जाती। लेकिन हमारी सरकारें नेहरू सरकार से लेकर वर्तमान सरकार तक जातियों के वैज्ञानिक आंकड़े जमा करने से घबराती रहीं, इसलिए कि ये आंकड़े सामने आए तो जातिगत शोषण की नंगी तस्वीर सामने आ जाएगी। इससे पता चलेगा कि जिन जातियों का कुल जनसंख्या में अनुपात 15-16 प्रतिशत हैं, वे 90-95 प्रतिशत पदों पर कब्जा जमाए बैठी हैं।

अंतिम बार जातियों के आंकड़े 1931 की जनगणना में इकट्ठे किए गए थे। उसके बाद ये आंकड़े जान-बूझ कर जमा नहीं किए गए और बिना वैज्ञानिक आंकड़ों के जातियों की शिनाख्त करने, उनका श्रेणीकरण करने तथा आरक्षण कोटा निर्धारित करने के सारे काम अनाप-शनाप ढंग से हुए। जनगणना के आंकड़ों से पहले क्रीमी लेयर लागू करना अवैज्ञानिक होगा और इसके लिए राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण या किसी और प्रकार के सर्वेक्षण के आंकड़े भी अधूरे ही होंगे। चूंकि जाति सभी राजनीतिक पार्टियों का निहित स्वार्थ बन गई हैं, कोई भी सरकार यह काम करने को तैयार नहीं होगी। अत: उच्चतम न्यायालय को ही इसका स्पष्ट निर्देश देना पड़ेगा। जैसे अमेरिका में रंग-भेद को समाप्त करने का काम वहां के उच्चतम न्यायालय को मुख्य न्यायाधीश अर्ल वारेन के प्रसिद्ध निर्णय के द्वारा करना पड़ा। वैसे ही हमारे उच्चतम न्यायालय को करना पड़ेगा। समस्याओं का अंत तभी होगा जब संविधान की आरक्षण व्यवस्था को पीछे कहे गए अनुसार वैज्ञानिक तरीके से लागू किया जाएगा और उच्चतम न्यायालय को आरक्षणों की 50 प्रतिशत सीमा को भी हटाना पड़ेगा और यह सीमा अद्विज जातियों की जनसंख्या को देखते हुए ‘पर्याप्त प्रतिनिधित्व’ की आवश्यकता के अनुसार निर्धारित करनी पडे़गी



प्रदीप गोल्याण, Date:- 11. Apr 2008
विश्लेषक एवं लेखक
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बुधवार, 9 जनवरी 2008

भगवान श्वी विश्वकर्मा जी पर शौध कार्य की आवश्यकता

साधन,औजार,युक्ति व निर्माण के देवता विश्वकर्मा जी के विषय में अनेकों भ्रांतियां हैं बहुत से विद्वान विश्वकर्मा इस नाम को एक उपाधि मानते हैं, क्योंकि संस्कृत साहित्य में भी समकालीन कई विश्वकर्माओं का उल्लेख है कालान्तर में विश्वकर्मा एक उपाधि हो गई थी, परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि मूल पुरुष या आदि पुरुष हुआ ही न हो, विद्वानों में मत भेद इस पर भी है कि मूल पुरुष विश्वकर्मा कौन से हुए। कुछ एक विद्वान अंगिरा पुत्र सुधन्वा को आदि विश्वकर्मा मानते हैं तो कुछ भुवन पुत्र भौवन विश्वकर्मा को आदि विश्वकर्मा मानते हैं,
ऋग्वेद मे विश्वकर्मा सुक्त के नाम से 11 ऋचाऐ लिखी हुई है। जिनके प्रत्येक मन्त्र पर लिखा है ऋषि विश्वकर्मा भौवन देवता आदि । यही सुक्त यजुर्वेद अध्याय 17, सुक्त मन्त्र 16 से 31 तक 16 मन्त्रो मे आया है ऋग्वेद मे विश्वकर्मा शब्द का एक बार इन्द्र व सुर्य का विशेषण बनकर भी प्रयुक्त हुआ है। परवर्ती वेदों मे भी विशेषण रुप मे इसके प्रयोग अज्ञत नही है यह प्रजापति का भी विशेषण बन कर आया है।
प्रजापति विश्वकर्मा विसुचित।

परन्तु महाभारत के खिल भाग सहित सभी पुराणकार प्रभात पुत्र विश्वकर्मा को आदि विश्वकर्मा मानतें हैं। स्कंद पुराण प्रभात खण्ड के निम्न श्लोक की भांति किंचित पाठ भेद से सभी पुराणों में यह श्लोक मिलता हैः-
बृहस्पते भगिनी भुवना ब्रह्मवादिनी ।
प्रभासस्य तस्य भार्या बसूनामष्टमस्य च ।
विश्वकर्मा सुतस्तस्यशिल्पकर्ता प्रजापतिः ।।16।।
महर्षि अंगिरा के ज्येष्ठ पुत्र बृहस्पति की बहन भुवना जो ब्रह्मविद्या जानने वाली थी वह अष्टम् वसु महर्षि प्रभास की पत्नी बनी और उससे सम्पुर्ण शिल्प विद्या के ज्ञाता प्रजापति विश्वकर्मा का जन्म हुआ। पुराणों में कहीं योगसिद्धा, वरस्त्री नाम भी बृहस्पति की बहन का लिखा है।
शिल्प शास्त्र का कर्ता वह ईश विश्वकर्मा देवताओं का आचार्य है, सम्पूर्ण सिद्धियों का जनक है, वह प्रभास ऋषि का पुत्र है और महर्षि अंगिरा के ज्येष्ठ पुत्र का भानजा है। अर्थात अंगिरा का दौहितृ (दोहिता) है। अंगिरा कुल से विश्वकर्मा का सम्बन्ध तो सभी विद्वान स्वीकार करते हैं। जिस तरह भारत मे विश्वकर्मा को शिल्पशस्त्र का अविष्कार करने वाला देवता माना जाता हे और सभी कारीगर उनकी पुजा करते हे। उसी तरह चीन मे लु पान को बदइयों का देवता माना जाता है।
प्राचीन ग्रन्थों के मनन-अनुशीलन से यह विदित होता है कि जहाँ ब्रहा, विष्णु ओर महेश की वन्दना-अर्चना हुई है, वही भनवान विश्वकर्मा को भी स्मरण-परिष्टवन किया गया है। " विश्वकर्मा" शब्द से ही यह अर्थ-व्यंजित होता है
"विशवं कृत्स्नं कर्म व्यापारो वा यस्य सः"
अर्थातः जिसकी सम्यक् सृष्टि और कर्म व्यपार है वह विशवकर्मा है।
यही विश्वकर्मा प्रभु है, प्रभूत पराक्रम-प्रतिपत्र, विशवरुप विशवात्मा है। वेदो मे " विशवतः चक्षुरुत विश्वतोमुखो विश्वतोबाहुरुत विश्वस्पात्" कहकर इनकी सर्वव्यापकता, सर्वज्ञता, शक्ति-सम्पन्ता और अनन्तता दर्शायी गयी है।
हमारा उद्देश्य तो यहाँ विश्वकर्मा जी का परिचय कराना है। माना कई विश्वकर्मा हुए हैं और आगे चलकर विश्वकर्मा के गुणों को धारण करने वाले श्रेष्ठ पुरुष को विश्वकर्मा की उपाधि से अलंकृत किया जाने लगा हो तो यह बात भी मानी जानी चाहिए।
हमारी भारतीय संस्कृति के अंतर्गत भी शिल्प संकायो, कारखानो, उधोगों मॆ भगवान विशवकमॉ की महता को प्रगत करते हुए प्रत्येक र्वग 17 सितम्बर को श्वम दिवस के रुप मे मनाता हे। यह उत्पादन-वृदि ओर राष्टीय समृध्दि के लिए एक संकलप दिवस है। यह जय जवान, जय किसान, जय विज्ञान नारे को भी श्वम दिवस का संकल्प समाहित किये हुऐ है।
यह पर्व सोरवर्ष के कन्या संर्काति मे प्रतिवर्ष 17 सितम्बर विशवकर्मा-पुजा के रुप मे सरकारी व गैर सरकारी ईजीनियरिग संस्थानो मे बडे ही हषौलास से सम्पन्न होता हे। लोग भ्रम वश इस पर्व को विश्वकर्मा जयंति मानते हे। जो सर्वदा अनुचित हे। भाद्रपद शुक्ला प्रतिपदा कन्या की संक्राति (17 सितम्बर), कार्तिक शुक्ला प्रतिपदा (गोवर्धन पूजा), भाद्रपद पंचमी (अंगिरा जयन्ति) मई दिवस आदि विश्वकर्मा-पुजा महोत्सव पर्व है। इन पर्वो पर भगवान विश्वकर्मा जी की पुजा-अर्चना की जाती है।
भगवान विशवकर्मा जी की वर्ष मे कई बार पुजा व महोत्सव मनाया जाता है। जैसे भाद्रपद शुक्ला प्रतिपदा इस तिंथि की महिमा का पुर्व विवरण महाभारत मे विशेष रुप से मिलता है। इस दिन भगवान विश्वकर्मा जी की पुजा अर्चना की जाती है। यह शिलांग और पूर्वी बंगला मे मुख्य तौर पर मनाया जाता है।
अन्नकुट (गोवर्धन पूजा) दिपावली से अगले दिन भगवान विश्वकर्मा जी की पुजा अर्चना (औजार पूजा) की जाती है। मई दिवस, विदेशी त्योहार का प्रतीक है।, रुसी क्रांति श्रमिक वर्ग कि जीत का नाम ही मई मास के रुसी श्रम दिवस के रुप मे मनाया जाता है। 5 मई को ऋषि अंगिरा जयन्ति होने से विश्वकर्मा-पुजा महोत्सव मनाया जाता है
भगवान विश्वकर्मा जी की जन्म तिथि माघ मास त्रयोदशी शुक्ल पक्ष दिन रविवार का ही साक्षत रुप से सुर्य की ज्योति है। ब्राहाण हेली को यजो से प्रसन हो कर माघ मास मे साक्षात रुप मे भगवान विश्वकर्मा ने दर्शन दिये। श्री विश्वकर्मा जी का वर्णन मदरहने वृध्द वशीष्ट पुराण मे भी है।


माघे शुकले त्रयोदश्यां दिवापुष्पे पुनर्वसौ।
अष्टा र्विशति में जातो विशवकमॉ भवनि च।।

धर्मशास्त्र भी माघ शुक्ल त्रयोदशी को ही विश्वकर्मा जयंति बता रहे है। अतः अन्य दिवस भगवान विश्वकर्मा जी की पुजा-अर्चना व महोत्सव दिवस के रुप मे मनाऐ जाते है। ईसी तरह भगवान विश्वकर्मा जी की जयन्ती पर भी विद्वानों में मतभेद है। भगवान विश्वकर्मा जी की वर्ष मे कई बार पुजा व महोत्सव मनाया जाता है।
निःदेह यह विषय निर्भ्रम नहीं है। हम स्वीकार करते है प्रभास पुत्र विश्वकर्मा, भुवन पुत्र विश्वकर्मा तथा त्वष्ठापुत्र विश्वकर्मा आदि अनेकों विश्वकर्मा हुए हैं। यह अनुसंधान का विषय है। अतः सभी विशवकर्मा मन्दिर व धर्मशालाऔं, विशवकर्मा जी से सम्भधींत संस्थाऔं, संघ व समितिऔं को प्रस्ताव पारित करके भारत सरकार से मांग जानी चाहीए की सम्पुर्ण संस्कृत साहित्य का अवलोकन किया जाय, भारत की विभिन्न युनीर्वशटीजो मे इस विष्य पर शौध की जानी चाहीए, विदेशों में भी खोज की जाय, तथा भारत सरकार विश्वकर्मा वशिंयो का सर्वेक्षण किसी प्रमुख मीडिया एजेन्सी से करवाऐ।
श्रुति का वचन है कि विवाह, यज्ञ , गृह प्रवेश आदि कर्यो मे अनिवार्य रुप से विशवकर्मा-पुजा करनी चाहिए

विवाहदिषु यज्ञषु गृहारामविधायके।
सर्वकर्मसु संपूज्यो विशवकर्मा इति श्रुतम।।

स्पष्ट है कि विशवकर्मा पूजा जन कल्याणकारी है। अतएव प्रत्येक प्राणी सृष्टिकर्ता, शिल्प कलाधिपति, तकनीकी ओर विज्ञान के जनक भगवान विशवकर्मा जी की पुजा-अर्चना अपनी व राष्टीय उन्नति के लिए अवश्य करनी चाहिए।

निर्माण क़ॆ देवता विश्वकर्मा

। जगदचक विश्वकर्मन्नीश्वराय नम: ।।
निर्माण के देवता विश्वकर्मा जी के विषय में अनेकों भ्रांतियां हैं बहुत से विद्वान विश्वकर्मा इस नाम को एक उपाधि मानते हैं, क्योंकि संस्कृत साहित्य में भी समकालीन कई विश्वकर्माओं का उल्लेख है।
निःदेह यह विषय निर्भ्र नहीं है। हम स्वीकार करते है प्रभास पुत्र विश्वकर्मा, भुवन पुत्र विश्वकर्मा तथा त्वष्ठापुत्र विश्वकर्मा आदि अनेकों विश्वकर्मा हुए हैं। यह अनुसंधान का विषय है। सम्पुर्ण संस्कृत साहित्य का अवलोकन किया जाय, विदेशों में भी खोज की जाय, क्योंकि यूरोपीय लोग भी विश्वकर्मा को फादर आफ आर्टस मानते हैं । यह उत्कृष्ट विद्वानों का महान कार्य है, परन्तु अब तक की खोज के आधार पर जो निष्कर्ष सम्मुख आया है उसी के आधार पर कहा जा सकता है कि मूल पुरुष विश्वकर्मा के पश्चात ही उपाधि प्रचलित होती है। प्रारंभ से नहीं, विश्वकर्मा ही नही, इन्द्र, व्यास, ब्रह्मा, जनक, धन्वन्तरि आदि अनेंकों ऐसी उत्कृष्ट विभूतियां उपाधियों के रुप में प्रचलित हैं, परन्तु इनका मूल पुरुष अवश्य है।जैसे देवराज इन्द्र जब विश्वकर्मा पुत्रों की हत्या कर दी। ब्रह्महत्या का पता लगा तो ऋषियों और देवताओं ने मिलकर देवराज इन्द्र को पदच्युत कर दिया और नहुष इन्द्र को इन्द्र की गद्दी पर आसीन कर दिया। इसी प्रकार सीताजी को राजा जनक की पुत्री माना जाता है। उसका नाम राजा सीरध्वज था। व्यास और ब्रह्मा उपाधि धारकों के लिए भी मूल पुरुष की खोज की जा सकती है।
हमारा उद्देश्य तो यहाँ विश्वकर्मा जी का परिचय कराना है। माना कई विश्वकर्मा हुए हैं और आगे चलकर विश्वकर्मा के गुणों को धारण करने वाले श्रेष्ठ पुरुष को विश्वकर्मा की उपाधि से अलंकृत किया जाने लगा हो तो यह बात भी मानी जानी चाहिए। शास्त्र में भी लिखा हैः-
स्थपति स्थापनाईः स्यात् सर्वशास्त्र विशारदः।
न हीनाग्डों अतिरिक्तग्डों धार्मिकस्तु दयापरः।।1।।
अमात्सर्यो असूयश्चातन्द्रियतस्त्वभिजातवान् ।
गणितज्ञः पुराणज्ञ सत्यवादी जितेन्द्रियः ।।2।।
गुरुभक्ता सदाहष्टाः स्थपत्याज्ञानुगाः सदा ।
तेषामेव स्तपत्याख्यो विश्वकर्मेति संस्मृतः ।।3।।
मयमतम् अ. श्लोक 15-16-23
अर्थः जो शिल्पी निर्माण कला में सिद्धहस्त सम्पूर्ण शास्त्रों का पूर्ण पंडित हो जिसके शरीर का कोई अवयव न अधिक हो न कम हो, दयालु और धर्मात्मा तथा कुलीन हो।।1।। जो अहंकार करने वाला ईर्ष्यालु और प्रमादी न हो, गणित विद्या का पुर्ण पंडित हो, वेदों के व्याख्यान रुप ब्राह्मण ग्रंथों और इतिहास में पारंगत हो, सत्यवादी तथा इन्द्रिंयों को जीतने वाहा आज्ञाकारी हो इस प्रकार के गुणों से युक्त रचयिता को विश्वकर्मा कहते हैं।।3।।
मयतम् के इस कथन से स्पष्ट होता है कि कालान्तर में विश्वकर्मा एक उपाधि हो गई थी, परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि मूल पुरुष या आदि पुरुष हुआ ही न हो, विद्वानों में मत भेद इस पर भी है कि मूल पुरुष विश्वकर्मा कौन से हुए। कुछ एक विद्वान अंगिरा पुत्र सुधन्वा को आदि विश्वकर्मा मानते हैं तो कुछ भुवन पुत्र भौवन विश्वकर्मा को आदि विश्वकर्मा मानते हैं, परन्तु महाभारत के खिल भाग सहित सभी पुराणकार प्रभात पुत्र विश्वकर्मा को आदि विश्वकर्मा मानतें हैं। स्कंद पुराण प्रभात खण्ड के निम्न श्लोक की भांति किंचित पाठ भेद से सभी पुराणों में यह श्लोक मिलता हैः-
बृहस्पते भगिनी भुवना ब्रह्मवादिनी ।
प्रभासस्य तस्य भार्या बसूनामष्टमस्य च ।
विश्वकर्मा सुतस्तस्यशिल्पकर्ता प्रजापतिः ।।16।।
अर्थ – महर्षि अंगिरा के ज्येष्ठ पुत्र बृहस्पति की बहन भुवना जो ब्रह्मविद्या जानने वाली थी वह अष्टम् वसु महर्षि प्रभास की पत्नी बनी और उससे सम्पुर्ण शिल्प विद्या के ज्ञाता प्रजापति विश्वकर्मा का जन्म हुआ। पुराणों में कहीं योगसिद्धा, वरस्त्री नाम भी बृहस्पति की बहन का लिखा है।
प्रश्न – आप आदि विश्वकर्मा किसे मानते, और यह बात आप किस आधार पर कह सकते हैं।
उत्तर – हम प्रभास पुत्र भुवना माता से उत्पन्न विश्वकर्मा को ही आदि या मूल विश्वकर्मा मानते हैं। हजारो वर्ष पहले महाराज देव ने जो संस्कृत के प्रकाण्ड पण्डित थे । वास्तु विद्या का एक ग्रंथ “समरांगण सूत्रधार” लिखा था, उसमें लेखक ने अपना इष्टदेव भगवान विश्वकर्मा को माना है। उन्होने ग्रंथ के आदि में अपने इष्ट के स्तवन करते हुए लिखा –
तदेशः त्रिदशाचार्य सर्व सिद्धि प्रवर्तकः
सुत प्रभासस्य विभो स्वस्त्रीयश्च बृहस्पतेः ।।
अर्थ – शिल्प शास्त्र का कर्ता वह ईश विश्वकर्मा देवताओं का आचार्य है, सम्पूर्ण सिद्धियों का जनक है, वह प्रभास ऋषि का पुत्र है और महर्षि अंगिरा के ज्येष्ठ पुत्र का भानजा है। अर्थात अंगिरा का दौहितृ (दोहिता) है। अंगिरा कुल से विश्वकर्मा का सम्बन्ध तो सभी विद्वान स्वीकार करते हैं। भोजदेव के प्रमाण में किसा को शंका यों नहीं होनी चाहिये कि आधुनिक काल के महाविद्वान महर्षि दयानन्द ने लिखा है –
“ महाभारत के पश्चात हजारों वर्ष व्यतीत होने पर भोज का वेंदों का ज्ञान था। भोजकाल में ही शिल्पियों ने काठ का घोडा बनाया था। जो एक घन्टे में सत्ताईस कोस चलता था। ऐसा ही एक पंखा बनाया था जो बिना मनुष्य के चलाये पुष्पकल वायु देता था। यदि ये पदार्थ आज तक बने रहते तो अंग्रेजो को अपने विज्ञान का इतना गर्व नही होता। भोजकाल में किसी ने वेद विरुद्ध पुराण बनाकर खडा किया था तो राजा भोज ने उसके हाथ कटवा दिये थे।”
हमारा कथन यह है कि जब हजारो वर्ष पहले तक आदि विश्वकर्मा को महर्षि प्रभास का पुत्र मानने का प्रचलन था या परम्परा थी तो अब इस काल में शंका क्यों की जाती, विश्वकर्मा कोई आधुनिक का के देवता तो नहीं हैं, ये तो वैदिक कालीन हैं। ऋगवेद जो विश्व का सबसे प्राचिन ग्रंथ माना जाता है, उसमे चौदह ऋचाओं वाला विश्वतर्मा सूक्त है। यदि पुराणों को वेदव्यास की रचना माना जाय तो पद्मपुराण भुखण्ड के इन शब्दों पर विचार करें – सर्व देवेसु यत्सूक्तं पठ्यते विश्वकर्मणः। चतुर्दशा वृतेनैनं यइमेत्यादिना यजेत्।।२।। अर्थात सभी देवगण विश्वकर्मा संबंधी जिस सूक्त का पाठ कर यजन करते हैं वह सूक्त यइमाभिवनानि मंत्र से आरंभ होता है और ऋगवेद मण्डल दस सूक्त बयासी के सातवें मंत्र तक चौदह ऋचाओं में पुर्ण होता है। यास्काचार्य ने भी निरक्त में विश्वकर्मा के सार्वभौम यज्ञ का वर्णन करते हुये लिखा – तदभिवादिनी एषा ऋक् भवति । यइमा विश्वा भुवनानि जुह्वत इतु। इस कथन में भी ऋगवेद के यइमा शब्दों से यज्ञ सम्पन्न हुआ। चौदह मंत्रो का यह सूक्त और इसका देवता तथा ऋषि तीनों ही विश्वकर्मा नाम से ऋगवेद में उल्लिखित हैं। हजारें-हजारों वर्षों के ये शास्त्रीय प्रमाण सिद्ध करते हैं कि निर्माण देवता विश्वकर्मा की पुजा के प्रसंग में अत्यंत प्राचीन काल से यजन याजन होते रहे है। भारतीय इतिहास में इतनी प्राचीन वैदिक पूजा पद्धती और किसी देवता से नहीं मिलती।
प्रश्न – सूक्त का क्या अर्थ है और वेदों में कितने सुक्त होते हैं ?
उत्तर – सूक्त शब्द सू + उक्त इस प्रकार बना है। सू का अर्थ है सुन्दर ढंग से या भली प्रकार, उक्त का अर्थ है कहना या बताना, जिस मंत्र समूह में किसी विषय को भली प्रकार कहा जाय अर्थात सुन्दर अभिव्यक्ति को सूक्त कहते हैं। वेदों में सैकडों ही सूक्त हैं जैसे इन्द्र सूक्त, अग्नि सूक्त, सृष्टि सूक्त इसी प्रकार विश्वकर्मा सूक्त हैं।
प्रश्न – यह बात तो समझ में आ गई जब प्रभास पुत्र विश्वकर्मा की आदि विश्वकर्मा के रुप में हजारों वर्ष पूर्व से मान्यता रही है तो यह विवाह का विषय नही रहा। परन्तु एक शंका नए सिरे से उभरकर सामने आई है। आपने बताया विश्वकर्मा सूक्त का मंत्र द्रष्टा ऋषि भौवन विश्वकर्मा है जिसे दूसरे विद्वान भुवन पुत्र विश्वकर्मा बताते हैं। प्रभास पुत्र विश्वकर्मा के साथ तो भौवन शब्द कैसे सिद्ध होगा या फिर वेद मंत्र द्रष्टा ऋषि दूसरा विश्वकर्मा मानना पडेगा ?
उत्तर – हमने जैसा कि पहले बताया है विश्वकर्मा का विषय गहन अनुसंधन का है फिर भी भौवन शब्द का निराकरण वेद के भाष्य कर्ता शतायु विद्वान श्रीपाद दामोदर सातवलेकर ने अपनी लिखी पुस्तक “विश्वकर्मा ऋषि का तत्वज्ञान” में अनेकों विद्वानों के मत से इस प्रकार किया गया है कि प प्रभास पुत्र विश्वकर्मा की माता जो देवगुरु बृहस्पति की बहन है उसका नाम भुवना होने के कारण पुत्र का नाम भौवन विश्वकर्मा माना गया है, और यही भौवन विश्वकर्मा वैदमंत्र द्रष्टा ऋषि हैं। भुवना शब्द भुवन से बना है जिसका अर्थ है लोक। तीनों भुवनों (लोंकों) में जिसकी ख्याति हो उसे भुवना कहते हैं।
प्रश्न – आपने विश्वकर्मा को सभी देवताओं का आचार्य बताया है। हमें यह मान्यता पक्षपातपूर्ण लगती है, स्पष्टिकरण किजीए।
उत्तर – हमने नहीं, महाराज भोजदेव ने “समरांगण सूत्रघार” में उन्हें तदेश त्रिदशाचार्य सर्व सिद्धि प्रवर्तक अर्थात सिद्धियों का जनक और देवताओं का आचार्य माना है। अष्ट सिद्धि और नव निधिंया मानी गयी है। आज भी जिस समाज और राष्ट के नागरिकों को शिल्प विज्ञान का ज्ञान है, सम्पुर्ण सिद्धियां मौजुद हैं वे ही देवताओं के आचार्य हैं। भोजदेव ने ही क्यों पुराणों में विश्वकर्मा जी को सर्व देव मय माना है। स्कन्द पुराण नागर खण्ड में लिखा है-
विश्वकर्माअभवत्पूर्व ब्रह्मरस्त्वपरातनुः ।
अर्थात पुर्व काल में ब्रह्मा जी और विश्वकर्मा जी का एक ही शरीर था। यहां विश्वकर्मा को ब्रह्मा का स्वरुप माना जाता है। वायु पुराण में आता है “विष्णुश्च विश्वकर्माचनभिद्येतेपरस्परम्” विष्णु भगवान और विश्वकर्मा में कोई भेद नही मानना चाहिये। ज्योतिष के प्रसिद्ध ग्रंथ बृद्धवाशिष्ठ में लिखा है “माघे शुक्ले त्रयोदश्यांदिता पुण्ये पुनर्वसौ। अष्टा विंशति में जातः विश्वकर्मा भवानि चः। अर्थ – शिवाजी महाराज अपनी पत्नी पार्वती को कह रहे हैं माघ मास के शुक्ल पक्ष में त्रयोदशि के दिन पुनर्वसु नामक नक्षत्र के अट्ठाईसवें अंश में विश्वकर्मा स्वरुप में उत्पन्न हुआ। यहां शिव अपने को विश्वकर्मा स्वरुप में मान रहें है। पुराणों स्पष्ट उल्लेख है “कृष्णश्च विश्वकर्मा च न भिद्यते परस्परम्। ” अर्थात भगवान कृष्ण और विश्वकर्मा में कोई भेद नहीं है। पुराणों के इन प्रमाणों से सभी शिरोमणि देवगण ब्रह्म, विष्णु, शिव और भगवान कृष्ण तक विश्वकर्मा स्वरुप में अपने को स्वीकार करते है। देवियों में विद्या की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती देवी सर्व प्रथम वन्दनीय मानी जाती है, उसके लिये भी पुराणकार कहते हैं त्वाष्ट्ररुपा सरस्वती अर्थात सरस्वती देवी भी विश्वकर्मा जी का ही स्वरुप हैं। पुराण तो वेदव्यास जी महाराज के लिखे माने जाते हैं। जब वेदव्यास जी सम्पूर्ण देवी देवताओं को विश्वकर्मा स्वरुप मानते हैं तो विश्वकर्मा जी को देवताओं का आचार्य मानने में किसे सन्देह हो सकता है ?
प्रश्न – जैसा की आपने भी माना है सभी विद्वान और शास्त्रकार विश्वकर्मा जी को अंगिरा ऋषि कुल से जोडते हैं परन्तु अंगिरा ऋषि को तो ब्राह्मण मात्र गोत्रकार ऋषि मानते हैं फिर आपका ही विशेष लगाव कैसे माना जाय ?
उत्तर – निःसंदेह महाभारत में लिखा है भार्गवांगिरसो लोके संतान लक्षणौ इसका तात्पर्य है पृथ्वी पर सभी मनुष्य भृगु और अंगिरा की संतान है इसलिये इन ऋषियों पर सभी का अधिकार माना जा सकता है। परन्तु विश्वकर्मा वंशजो का तो अंगिरा से सीधा ही सम्बन्ध है। विश्वकर्मा ब्राह्मण लोग अथर्ववेदी हैं, अथर्ववेद का ज्ञान परमात्मा ने अंगिरा ऋषि द्वारा ही ब्रह्मा और दूसरे ऋषियों तक पहुँचाया हैं, सृष्टी के आरंभ में चार ऋषियों द्वारा ही चारों वेदों का ज्ञान मानव मात्र के लिये दिया, ऐसी वेदों की मान्यता है। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद का ज्ञान क्रमशः अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा ऋषियों द्वारा ही मानव जाति को प्राप्त हुआ। इस बात को वेदों के सभी विद्वान स्वीकारते हैं, चारें वेदों के चार ही उपवेद हैं। संस्कृत साहित्य के ग्रंथ चरणव्यु आदि में स्पष्ट उल्लेख है “आयुर्वेदश्चिकित्सा शास्त्रंऋग्वेदस्योपवेदः । धनुर्वेदो युद्ध शास्त्रंयजुर्वेदस्यापवेदः । गंधर्ववेद संगीत शास्त्रं सामवेदस्योपरेदः । अर्थवेदों (स्थापत्यवेदों) विश्वकर्मादि शिल्प शास्त्रं अथर्ववेदस्योपवेदः।।4-5।।
अर्थ – ऋग्वेद का उपवेद आयुर्वेद है जिसे चिकित्सा शास्त्र कहते हैं। यजुर्वेद का उपवेद धनुर्वेद है जिसे संगीत शास्त्र कहते हैं, और अथर्ववेद का उपवेद अर्थवेद है, जिसके अन्तर्गत विश्वकर्मा का सम्पुर्ण शिल्प शास्त्र आता है। इस प्रकार हम वंशावली के साथ-साथ अथर्ववेदी होने के नाते सीधे अंगिरा ऋषि से जुड जाते हैं।
प्रश्न – विश्वकर्मा जी की पुत्री सूर्य को विवाही थी, वह सूर्य का तेज सह नहीं सकी तो विश्वकर्मा जी ने अपनी पुत्री से पूछकर जितना तेज वह सह सकती थी उतना छोडकर बढा हुआ तेज सूर्य को खराद पर चढाकर छील दिया, उससे देवताओं के लिए अनेकों प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों का निर्माण किया। यह तथा भागवत पुराण के षष्ठस्कंद में आती है इसकी वास्तविकता बताइये ?
उत्तर – विज्ञान के युग ऐसी बातें नहीं मानी जा सकतीं । यह तो ऐसी बात है जैसे श्री हनुमान चालीसा में श्री हनुमान जी के लिये जब तीनों लोकों में अंधियारा छा गया। ये अतिरंजित करके लिखी हुई बातें हैं जो सम्भव नहीं है। विश्वकर्मा जी की पुत्री जिसका नाम पुराणों में संज्ञा लिखा है, वास्तविक नाम रेणु या सुरेणु था, पाठ भेद से दोनों ही नाम आते हैं। सुरेणु विवस्वान सूर्य नाम के प्रतापि राजा के विवाही थी, कारणवश (पुराणों में लिखा है अप्रसन्न होकर) सुरेणु पिता के घर उत्तर कुरु आई उसके बाद सूर्य भी आकर ससुराल में रहे। विवस्वान सूर्य ने सुरेणु को अश्व पर आरुढ करके घुमाया-फिराया । जन साधारण अश्व पर आरुढ हुई सुरेणु को अश्विनी कहकर पुकारा जाने लगा।
कालान्कर में इस अश्विनी से दो जुडवा पुत्र पैदा हुए, उनका नाम अश्विनी कुमार रखा गया, ये बालक अतिशय प्रभावशाली और तेजस्वी थे, इन्होंने आयुर्वेद का ज्ञान प्राप्त किया और अपनी विलक्षण बुद्धि के कारण अश्विनी कुमार देवतोओं के यशस्वी वैद्य बन गये। ये शल्य क्रिया निष्णात थे, इन्द्र की टूटी भुजा इन्होने ठीक की थी, अंधो को आँखे प्रदान की । अंग प्रत्यरोपण विद्या इन्हें आती थी। इन्हीं अश्विनी कुमारों ने वृद्ध च्यवन ऋषि को पुनर्युवा बनाने के लिए च च्यवनप्राश बनाकर दिया था, जो हजारों वर्षों से आयुर्वेद का आश्चर्यजनक टॉनिक चला आ रहा है। अष्टवर्ग आदि मूल्यवान और शुद्ध औषधियाँ नही मिलने के कारण अब च्यवनप्राश इतना प्रभावशाली नही रहा है। नाना विश्वकर्मा ने अपने दोहिते अश्विनी कुमारों की चतुर्दिक ख्यति जानकर इनके शीघ्र गमन के लिये एक हल्का यान बनाकर दिया था।
प्रश्न – विश्वकर्मा जी की मूर्तियाँ चित्र में कहीं चार मुख और कहीं पांच मुख बताये जाते है, आरती में भी द्विभुज चतुर्भुज पंचाननराजे बोला जाता है, इसे समझाइये ।
उत्तर – किसा भी मानव देहधारी साधारण या असाधारण व्यक्ति के एक मुख से अधिक नही होते यह सृष्टी का नियम है। ये चार या पांच मुख प्रतिक बताये जाते है। मुख का अर्थ है मुख्य, शरीर का मुख्य भाग मुख कहलाता है। मुख्य भाग में सारी ज्ञानेंन्द्रिंया होती है, इयलिये मुख का अर्थ ज्ञान है। चार मुख से तात्पर्य है चारों वेदों का ज्ञान, और पांचवें मुख से अर्थ लेना चाहीए चारों वेदों के ज्ञान को जो कार्यरुप में परिणत कर दे वह पंचमुखी कहलाता है।
काशीस्थ विद्वानों द्वारा प्रणीत पं. नीलकंठ भट्ट द्वारा सम्पादित“प्रतिष्ठामयूख” ग्रंथ हमारे सम्मुख है, इसके पृष्ट सैंतिस पर प्रतिष्ठा करते समय यजमान से विश्वकर्मा स्वरुप कस ध्यान करने का जो निर्देश दिया गया है वह इस प्रकार है –
विश्वकर्मा तु कर्त्तव्यःश्मश्रुलो मासलाधरः ।
संदंश पाणिनी द्विर्भुजस्तेतो मूर्ति प्रतापवान ।।
इतिध्यात्वा
अर्थ – विश्वकर्मा देव जो हृष्ट पुष्ट ब्रह्मचारी दाढी मूछोंवाले अत्यन्त प्रतापी तेजस्वी पुष्ट ओंष्टों तथा दो भुजाओं वाले जिनके हाथ में सन्डासी (निर्माण यंत्र) है इस प्रकार इनके स्वरुप का ध्यान करना चाहिये । इसमें भी विश्वकर्मा का स्वरुप एक भुजाओं और (श्मश्रु) दाढीवाला बताया गया है। दाढी वाले दो ही देवता है ब्रह्मा और विश्वकर्मा।
वास्तु शास्त्र के ग्रन्थ राजवल्लभ में पंचमुखी विश्वकर्मा स्वरुप इस प्रकार बताया गया है –
कम्बा सूत्राम्बच मंच वहति करतले ज्ञान सूत्रम् ।
हंसारुढस्त्रिनेत्रं शुभं मुकुट सर्वतो वृद्धकायः ।।
अर्थात – जिसके हाथ में जलपात्र कमण्डलु तथा शिल्पाशास्त्र है, हंस पर आरुढ हो पीताम्बर पहने है, सिर पर मुकुट घारण किये हैं तथा सभी ओर जिनका शरीर ज्ञान ज्योति से दीप्तिमान विशालकाय है, ऐसे प्रभु विश्वकर्मा का ध्यान करना चाहिये।
पं. हरिकेश दत्त शास्त्री

पं. हरिकेश दत्त शास्त्री, http://www.vishwakarmasamaj.com

श्री विश्ववकर्मा धीमान समाज की वरीयताः एक निर्धारित अध्ययन

अध्ययनकर्ता व संवाद रचियता
प्रदीप गोल्याण (M.B.A., std. Ph.D), रिसर्च फैलो, गु० ज० वि०, हिसार
संग्रहकर्ता
1. सत्यपाल बुडायन, सचिव, कोपरेटिव बैंक, किठाना
2. विजय धीमान, एस० ए०, हरि० वि० प्र० नि०, जीन्द

Jh विश्वकर्मा समाज ने जितना संधर्ष किया, उतना परिणाम सामने नही आया। अभी इस समाज मे संतोषजनक जागृति नही आई है। अगर विश्वकर्मा हमारे निर्माता है।, तो हम समाज के निर्माता है। नए वातावरण व आधुनिक कंप्युटरीकृत युग मे हमे देखना है की समाज का निर्माण कैसे करना है (महेन्द्र सिह पंचाल, 2007)? हम विश्वकर्मावंशी महान सामाजिक प्राणी हैं। समाज के सभी प्राणीयों का जीवन सुखीमय बनाने में हमारा महान योगदान है। हमने अपने बुद्धि कौशल तथा अथक प्रयास से वास्तुकला, आधुनिक आविष्कार व वैजानिक तकनीकों का विकास किया है। इतना महान सामाजिक प्राणी होते हुए भी हमारा समाज प्रगति की दौड व विकास मे अन्य जातियों से पिछड क्यों रहा है? यह एक विचारणीय विषय है।
 अतः हमारा सवाल है कि धीमान समाज के विकास को प्रभावित करने वाले कारक कौन से है जो धीमान समाज के पिछडने का कारण है?

 अध्ययन पद्धति
सामाजिक समस्याओं का माप - दो आधार
1) सांस्कृतिक दृष्टिकोण से सामाजिक समस्याओं का माप लोगो के मूल्य निर्णय ही हैं। प्रत्येक समाज के अपने कुछ मूल्य, आदर्श, नैतिक नियम होते है। इन्ही को मापदण्ड के रुप मे प्रयोग किया जाता है।
2) सामाजिक समस्याओं का सांख्यिकीय माप भी सम्भव है। आधुनिक समय मे सरकारी व गैरसरकारी संस्थानों द्वारा विभिन्न सामाजिक समस्याओं के सम्बन्ध मे आंकडे एकत्रित किए जाते हैं उन आंकडों की सहायता से हम अधिकांश सामाजिक समस्याओं की गम्भीरता को माप सकते है।
अतः इस अध्ययन को दो भागों मे विभाजीत किया गया है प्रथंम भाग मे समाज के पास सामाजिक साहित्य की कमी को देखते हुए समाज के बुद्धिजीवि, दार्शनिक, चिंतक, समाजसेवी, वरिष्ट नेतृत्व, संपादक व पत्रकारों के विचारों, आलेख व सुझावों के माध्यम से धीमान समाज मे प्रचलित सांस्कृतिक मापदण्ड जैसे सामाजिक मूल्य, आदर्श, नैतिक नियम आदि की वरीयता पर अध्ययन किया गया है इन्ही के आधार पर धीमान समाज मे विध्यमान दस उपकल्पनाओं को परिभषित किया गया है।
द्वितिय भाग मे दस उपकल्पनाओं पर सांख्यिकीय तकनीकों के द्वारा विभिन्न सामाजिक समस्याओं के सम्बन्ध मे धीमान समाज के 110 प्रतिवादियों से आंकडे एकत्रित कर उनका विश्लेषण किया गया है वर्तमान अध्ययन मे प्राथमिक आकडे प्रश्नपत्र के माध्यम से प्राप्त किए गए हैं।
 अध्ययन की उपयोगिता
अध्ययन की उपयोगिता इस बात से मानी जाती है कि उसमें कितने संदर्भ प्रयोग किये गये है व अध्ययन के लिए कौन सी तकनीक का प्रयोग किया गया है। अध्ययन की उपयोगिता तथ्यों पर भी आधारित होती है। वर्तमान अध्ययन को दो भागों मे विभाजित धीमान समाज मे प्रचलित सांस्कृतिक मापदण्ड व सांख्यिकीय तकनीकों के द्वारा विभिन्न सामाजिक समस्याओं के सम्बन्ध मे धीमान समाज के 110 प्रतिवादियों से आंकडे एकत्रित कर उनका विश्लेषण किया गया है। धीमान समाज मे प्रचलित सांस्कृतिक मापदण्डों के लिए 16 संदर्भ प्रयोग किये गये है। सांख्यिकीय तकनीकों मे औसत, मानक विचलन व कारक विश्लेषण आदि का प्रयोग किया गया है। इस अध्ययन के तथ्य धीमान समाज के बुद्धिजीवि वर्ग से मेल खाते है। अध्ययन के प्रस्ताव समाज के वरिष्ठ नेतृत्व व बुद्धिजीवि वर्ग को समाज मे व्यापक सामाजिक समस्याओं का समाधान कर समाज के विकास के लिए नितियां बनाने व विभिन्न संगठनो के उदेश्य निर्धारित करने के लिए किया जा सकता है। यह अध्ययन भविष्य मे किये जाने वाले अध्ययनों के लिए एक आधार व दिशा प्रदान करने मे सक्षम है अतः अन्य अध्ययनकर्ता भी इसका प्रयोग कर सकते हैं
सामाजिक समस्या एक ऐसी अवस्था होती है जिसे की समाज के काफी लोग अवांछनिय मानते हैं इस लिए ये लोग यह विश्वास करते है कि उस परिस्थिति के विषय मे कुछ न कुछ अवश्य ही करना चाहिए। इसका तात्पर्य यही हुआ कि संस्कृति से उपलब्ध हमारा मूल्य निर्णय कुछ अवस्थाओं को सामाजिक समस्या के रुप मे परिभाषित करता है। (रिचार्ड सी. फुलर) सामाजिक समस्या का सम्बन्ध किसी व्यक्ति विशेष के व्यवहार से नही अपितु समाज के बहुत से सदस्यों के किसी दुर्व्यवहार, कठिनाई, बुरे या अवांछनिय क्रियाकलाप से होता है। कौन सा व्यवहार बुरा या अवांछनिय है, इसका अन्तिम निर्णय समाज मे प्रचलित सांस्कृतिक मापदण्ड जैसे सामाजिक मूल्य, आदर्श, नैतिक नियम आदि के द्वारा ही होता है (सरला दुबे,1999)
पदमभूषण स्वामी कल्याण देव जी (2000) ने कहा कि गांव गांव तक छोटे बडे विश्वकर्मा स्कूल बनने चाहिए। उन्होने स्पष्ट भाषा मे उदघोष किया की अब मन्दिरों की नही स्कुलों तथा तकनीकी प्रशिक्षण केन्द्रों की जरुरत है। हमारा समाज शिक्षा के कारण ही पिछडा है। उन्होने आह्वान किया कि पूरे विश्वकर्मा समाज का एक ही संगठन बनना चाहिए तथा विश्वकर्मा जी को अपना गुरु मानकर कार्य करना चाहिए। उन्होने यह भी चेतावनी दी कि जब तक समाज महिलाओं को बराबर खडा नही करेगा, तब तक उन्नति नही होगी। रामशरण पांचाल युयुत्सु (2000) ने सचेत किया कि आज पुरा समाज अनेक घटकों मे विभाजित होकर जडता की और अग्रसर है। जो समाज की उन्नति मे तो बाधक है तथा समाज अपने लक्ष्यों से दूर होता जा रहा है। अभिभावकों को अपनी फिजूलखर्ची को सीमित करके बच्चों की उच्च शिक्षा पर ध्यान देना चाहिये। उन्होने आह्वान किया कि घर से यदि सम्भव ना हो तो कम से कम हर एक नगर व कस्बे से आई. ए. एस, इंजीनियर व डाक्टर बनने चाहिये। उन्होने अपील की समाज के सम्पन्न लोग एक एक बच्चे को सामाजिक तौर पर गोद लें तथा उन्हें पढ़ाने मे आर्थिक सहयोग उपलब्ध करायें।
हमारे नेताओं से समाज को दिशा बोध तब प्राप्त होगा, जब उनके आचरण मे सामाजिकता होगी। उनके ह्रदय मे समाज सेवा की आग होगी। जब आग है ही नही, तो उसका ताप कहां से प्रगट होगा। आप चाहते हैं संगठन करना और फिर अंतर मे विघटन का षडयत्र चल रहा हो संगठन खडा नही हो पायेगा। संगठन खडा करना, चलाना है तो संगठन का उदेश्य सर्व प्रथम सामने होना चाहिए। (डा लक्ष्मी निधि, 2006) समाज के नेता आजकल समाज मे अपनी चौधर के लिए अलग अलग गुट बनाए हुए है। अगर समाज मे नेताओं की ही आपस मे एकता नही होगी, तो ये समाज का कैसे भला करेंगे। (दिलबाग सिंह पांचाल, 2007) आज असंख्य सामाजिक संस्थाओं के प्रगति का यदि निष्पक्ष मूल्याकंन किया जाए तो परिणाम अपेक्षा के अनुरुप शायद ही मिले। अनेक कारणों से ये संस्थाएं प्राय निष्प्रभावी व शिथिलता को प्राप्त होती दिखाई पड रही हैं। किन्ही मे संकल्पों का अभाव खटक रहा है। किन्ही मे पारस्परिक सहयोग व सामंजस्य की कमी खल रही है। तो कंही कार्यकर्ताओं के मार्ग में अति महत्वकांक्षियों के जमघट अवरोध बन कर खडे है। इन विषम परिस्थितियों पर पार पाने के लिए संस्थाओं के शिखर नेतृत्व की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। (इंद्रजीत शर्मा जगदेव, 2007)
आज के युग मे जहां हर तरफ झूठे, बेहुदा प्रभाव की चकाचौंध, वैश्वीकरण, राजनैतिक व परिदृशवी आदि है। ऐसे मे समाज को मजबूत व संगठित नही किया गया तो हमें अपनी संस्कृति, विचारधारा तथा समाज को अक्षुण बनाये रखने के लिए जबरदस्त पसीना बहाना पडेगा। समाज ऐसे सशक्त हाथों मे होना चाहिये कि यदि प्रलय भी आ जाय तो समाज एकजुट होकर कार्य करने के लिए तत्पर रहे। (अमर सिंह धीमान 2007) समाज को उच्च शिक्षा व कार्यदक्षता पर ध्यान देना चाहिये, समाज की आवश्यकता है कि हमारे लोगों मे नेतृत्व शक्ति का विकास हो, हमारा समाज सभी क्षेत्रों मे प्रवेश करे। यदि समय के साथ चलना है और शासन तथा सता पर अपना अधिकार लेना है तो संगठन शक्ति को बढ़ाना आज की प्रथंम आवश्यकता है (प्रदीप गोल्याण, 2007) संगठन के उदेश्यों के बारे में आम लोगों को जागरुक बनाएं। लोगों की समस्याओं को सुने व उन्हे सुलझाने का प्रयास करें तथा अधिक से अधिक समाज के लोगों से सम्पर्क करें। संगठन का नेतृत्व निस्वार्थ तथा पारदर्शी होना चाहिए। संगठन को चुस्त व कार्यशील रखने के लिए ब्लाक, तहसील, जिला व प्रदेश स्तर पर नियमित रुप से मीटिगों का आयोजन किया जाना चाहिए। (प्रेमसागर धीमान, 2007)
विश्वकर्मा समाज सदियों से पिछडा हुआ है जो लोग गावों मे रह रहे है। उनकी स्थिति तो और भी दयनीय है। अन्य कारण भी रहे होगें पर इस समाज के पिछडेपन का मुख्य कारण नशा है। हम समाज के उत्थान का उदेश्य हासिल तब तक नही कर सकते जब तक समाज के मान सम्मान को नष्ट करने लिए एक ही नशाखोर पर्याप्त है। (बचना राम धीमान, 2007) समाज मे जान की कमी के कारण ही आपसी झगडे, शराब व नशे का सेवन, दहेज की मांग जैसी कुरीतियों का प्रभाव बना रहता है। समाज मे मीडिया की बहुत कमी है। जो कुछ गिने चुने लोग पत्र पत्रिकाएं निकाल रहे है। वह सदा संकट मे रहते हैं। ये समाज की सेवा मे तो हैं। परन्तु उन्हे समाज का भरपूर सहयोग नही मिलता है। (माघी राम धीमान, 2007) किसी समाज की उन्नति व समृद्धि तब तक कोई अर्थ नही है जब तक समाज की बहन व बेटियां अशिक्षित हैं आज विश्वकर्मा समाज को अपनी बेटियों को अधिक से अधिक शिक्षित करने की नितांत आवश्यकता है। वर्तमान समय की यह मांग है कि हमारी बहने अपने धार्मिक, सामाजिक व महिला मण्डल आदि संगठन बनाए व विश्वकर्मा साहित्य अध्ययन कर इसका प्रचार प्रसार करें तांकि विश्वकर्मा समाज मे चेतना शक्ति और विकास का सुत्रपात हो सके। (सोमदत धीमान, 2007)
समाज के बुद्धिजीवि, दार्शनिक, चिंतक, समाजसेवी, वरिष्ट नेतृत्व, संपादक व पत्रकारों के विचारों, आलेख व सुझावों के माध्यम से धीमान समाज मे प्रचलित सांस्कृतिक मापदण्डों के आधार पर हमने पाया की समाज का यह बुद्धिजीवि वर्ग शिक्षा, उच्च शिक्षा, पारिवारिक समस्या, संगठन, संगठन कार्य प्रणाली, एकता शक्ति, भाईचारा, नेतृत्व गुण व नेतृत्व शैली, व नशे से सम्बन्धीत सामाजिक समस्याओं पर ज्यादा व्याख्या कर रहा है ftlds dkj.k ;g lekt vU; समाजों ls fiNMk gSaA अतः इनही विचारों, आलेख व सुझावों के आधार पर धीमान समाज मे विध्यमान दस उपकल्पनाओ को परिभाषित किया गया है। जिनका विवरण तालिका मे दिया गया है।
 तालिका:- उपकल्पनाओ का विवरण

1.शिक्षा का स्तर बढ़ने से श्री विशवकर्मा धीमान समाज का विकास हुआ है
2.श्री विशवकर्मा धीमान समाज के विकास लिए बच्चों को उच्च शिक्षा न दिलवाकर स्वयं रोजगार मे लगाना चाहिए
3.श्री विशवकर्मा धीमान समाज के बच्चे अपनी पढ़ाई को आर्थिक तंगी, पारिवारिक कल्ह व पारिवारिक लापरवाही के कारण बीच मे ही छोड देते हैं
4.श्री विशवकर्मा धीमान समाज मे पारिवारिक कल्ह का कारण रोजगार का न होना व आर्थिक तंगी हैं
5.श्री विशवकर्मा धीमान समाज मे कुठां व आपसी भाई चारे कि कमी का कारण, शिक्षा का न होना व साकारात्मक सोच की कमी है
6.श्री विशवकर्मा धीमान समाज के कल्याण के लिए कोई संघ/ समिति/संगठन का होना आवशयक है
7.श्री विशवकर्मा धीमान समाज के संघ/समिति/संगठन पदाधिकारियों का उच्च शिक्षित होना, राजनैतिक भागीदारिता होना व अच्छी वितिय स्थिति का होना आवशयक है
8.श्री विशवकर्मा धीमान समाज के नेता व बुध्दिजीवि वर्ग निःस्वार्थ भाव व लगन से सामाज की समस्याऔ की जानकारी प्राप्त कर उनका समाधान निकालते हैं
9.श्री विशवकर्मा धीमान समाज के लोगो मे समय की कमी, साधनो कि कमी व आर्थिक तंगी आदि मिटिगों मे भागीदारीता न लेने के कारण हैं
10.श्री विशवकर्मा धीमान समाज के लोगो के द्वारा पी जाने वाली शराब के मख्य कारण बेरोजगारी, शिक्षा का न होना, पारिवारिक कल्ह, पारिवारिक लापरवाही, ऊर्जा का स्त्रोत व युवाओं का बढ़ता शोंक है

 यहां पर हमारा सवाल है कि समाज के बुद्धिजीवि वर्ग द्वारा परिभाषित की गई उपकल्पनाऐं , क्या धीमान समाज के लोगों मे व्यापक है
वर्तमान अध्ययन मे प्राथमिक आकडे प्रश्नपत्र के माध्यम से प्राप्त किए गए हैं। प्रश्नपत्र मे 10 धीमान समाज से सम्बंधित उपकल्पनाओ को परिभषित किया गया हैं। जिसे धीमान समाज के लोगो से नo 5 मापनी पर 1.पूर्णतः सहमत के लिए, 2.केवल सहमत के लिए ,3.औसत के लिए ,4.असहमत के लिए,5. पूर्णतः असहमत के लिए न0 देकर भरवाया गया है। यह प्रश्नपत्र धीमान समाज जीन्द शहर के 110 प्रतिवादियों पर प्रयोग मे लाया गया।
प्राथमिक आकडों का विशलेषण माध्य(Mean), मानक विचलन (S.D), सह सम्बधं व कारक विश्लेषण(Factor Analysis ) जैसी नविनतम सांख्यिकीय तकनिकों का प्रयोग करके किया गया है। माध्य(Mean) का प्रयोग औसत निकालने के लिए व S.D का प्रयोग आकडों के पृथक्करण के लिए किया गया है कारक विश्लेषण के द्वारा आकडों को कम करके उपकल्पनाओं का परिभाषित किया गया है।
 परिणाम व चर्चा
तालिका मे उपकल्पनाओ पर प्रतिवादियों की प्रतिक्रिया को दर्शाया गया है। जिसमें माध्य(Mean) का प्रयोग औसत निकालने के लिए व मानक विचलन (S.D) का प्रयोग आकडों के पृथक्करण के लिए किया गया है प्रतिवादि केवल उपकल्पना न० 2 व 8 को छोड कर अन्य सभी पर सकारात्मक रुप से सहमत है। परन्तु उपकल्पना न० 2 व 8 पर आंछिक रुप से असहमत या औसत हैं यह दर्शाता है कि प्रतिवादि फैसला नही ले पा रहें की वे बच्चों को उच्च शिक्षा दिलवाए व रोजगार में लगाए। इसी तरह ये उपकल्पना न० 8 पर भी नकारात्मक प्रतिक्रिया दर्शातें है। प्रतिवादि सबसे जयादा सहमत उपकल्पना न० 6 पर है। जिसका मानक विचलन भी सबसे कम है यह जनकल्याण के लिए संघ व संगठन के निर्माण से संबन्धित है अतः लोग मजबुत व क्रियाशील संगठन चाहते है। अध्ययन मे स्थयापित किया गया कि समाज के बुद्धिजीवि वर्ग द्वारा परिभाषित की गई उपकल्पनाऐं धीमान समाज के लोगों मे व्यापक है
 परन्तु हमारा सवाल है कि धीमान समाज के विकास को कौन से कारक प्रभावित करते हैं? तथा धीमान समाज मे इनके प्रति कितनी जागृति है?
अतः कारक विश्लेषण के द्वारा उपकल्पनाओं को प्रतिवादियों की प्रतिक्रिया व आपसी सम्बन्ध के आधार पर इक्कठा व कम करके कारकों को परिभाषित किया गया है। इस अध्ययन मे 3 कारक मिले है धीमान समाज के विकास को प्रभावित करने वाले 3 कारक “समाजिक समस्याए”,”समाजिक दृष्टिकोण” व “पारिवारिक समस्या व नैतृत्व गुण” है जो की 55% आंतरिक भेद को दर्शाते है। अर्थात धीमान समाज के मात्र 55% लोग समाज के विकास के प्रति जागरुक हैं 26.4% लोग सामाजिक समस्याओं को, 16.9% लोग सामाजिक दृष्टिकोण को व 11.9% लोग पारिवारिक समस्या व नैतृत्व गुण को सामाजिक विकास को प्रभावित करने का कारण मानते है। निकाले गए कारक समूह की लोडिंग .450-.868 श्नेणी के बीच मे है। के० एम० औ० तथा बार्टलेट टेस्ट के अनुसार कारक (Sampling Adequacy.629, sig .000) महत्व के साथ सार्थक हैं कारकों का विवरण इस प्रकार हैः
पहले कारक का नाम सामाजिक समस्याए है यह दर्शाता है धीमान समाज सामाजिक समस्याऔं को लेकर जागरुक है। अध्ययन के अनुसार धीमान समाज के लोगों के द्वारा मिटिगों मे भागीदारीता न लेने की समस्या सबसे ज्यादा (लोडिंग .868) सामने निकल के आई है नशे की समस्या (लोडिंग .833) व समाज मे बच्चों की पढ़ाई बीच मे छोडने की समस्या (लोडिंग .619) भी अन्य बडी समस्या है। एम० डी० विश्वविद्यालय के प्रो० डा० खजान सिहं के अनुसार लोगों मे नशे की प्रवृति हावी हो रही है उन्होने इसका कारण निराशाजनक सोच, बेरोजगारी, पारिवारिक लापरवाही व ग्लैमर जिंदगी के प्रति आकर्षण के भाव को बताया है। (जींद, जागरण संवाद, 2007) पिछले दिनों सर्व शिक्षा अभियान के तहत कराए गए सर्वेक्षण के आधार पर जींद जिले में 4456 ऐसे बच्चे है, जो स्कूलों में नहीं पढ़ रहे है। उन्होंने दोहराया कि आर्थिक गरीबी अथवा माता-पिता का शिक्षा के प्रति सकारात्मक रुझान न होना भी इसका कारण हो सकता है। (जींद, जागरण संवाद, 2007)
दुसरे कारक मे समाजिक दृष्टिकोण, के नाम यह दर्शाता है धीमान समाज विकास चाहता है यह विकास मे उच्च शिक्षा (लोडिंग .737) को साहयक मानता है। धीमान समाज के कल्याण व विकास के लिए कोई संघ/ समिति/संगठन का होने आवशयकता(लोडिंग .604) पर बल दिया गया है धीमान समाज मे कुठां व आपसी भाई चारे की कमी (लोडिंग .435) के कारण अपना सामजिक विकास नही कर पा रहा है।
पारिवारिक समस्या व नैतृत्व गुण नo 3 कारक है यह दर्शाता है धीमान समाज पारिवारिक समस्याऔं का समाधान (लोडिंग .626) संगठन के माध्यम से चाहता है इसके लिए यह धीमान समाज के संघ/समिति/संगठन पदाधिकारियों का उच्च शिक्षित होना व राजनैतिक भागीदारिता होना (लोडिंग .762) आवशयक मानता है

 अंत मे हम यह स्थयापित करने मे कामयाब हो गये कि धीमान समाज के विकास को कौन से कारण प्रभावित करते हैं ये है सामाजिक समस्याए, सामाजिक दृष्टिकोण तथा पारिवारिक समस्या व नेतृत्व गुण।

 प्रस्ताव
शहरी क्षेत्र मे धीमान समाज के विकास के प्रति मात्र 55% जागृति का पाया जाना चिंता का विषय है गावों में तो स्थिति इस से भी बुरी होगी अतः समाज के वरिष्ठ नेतृत्व व बुध्दिजीवि वर्ग से हमारे प्रस्ताव है की आकडो के अनुसार समाज के विकास के लिए बच्चों को उच्च शिक्षा दिलवाना आवश्यक है। श्री विश्वकर्मा धीमान समाज के नेता व बुध्दिजीवि वर्ग निःस्वार्थ भाव व लग्न से सामाज की समस्याऔ की जानकारी प्राप्त कर उनका समाधान निकालना भी सामज के विकास मे सहायक है। समाज मे बच्चों की पढ़ाई बीच मे छोडने की समस्या का समाधान सामुहिक कार्यकर्मों के माध्यम से किया जा सकता है। नशा, पारिवारिक कल्ह व बेरोजगारी भी बच्चों की शिक्षा को प्रभावित करती है पारिवारिक कल्ह को दुर करने मे सामाज के नेता व बुध्दिजीवि वर्ग की महत्वपूर्ण भूमिका होती है इसलिए इनका उच्च शिक्षित होना व राजनैतिक भागीदारिता होना अवशयक है। धीमान समाज के लोगों के द्वारा मिटिगों मे भागीदारीता न लेने के कारण, सामाज के नेता व बुध्दिजीवि वर्ग इनकी समस्याऔं का समाधान निकालने मे असमर्थ हैं। लोगों के द्वारा मिटिगों मे भागीदारीता न लेने के मुख्य कारण नशे की समस्या है समाज मे व्यापक नशे की समस्या मे समाज सुधार समिति व अन्य जनकल्याण की संस्था बनाकर सुधार लाया जा सकता है।
विश्वकर्मा समाज से आग्रह है। कि इस समाज के कर्मठ और ईमानदार लोगों को खुलकर राजनीति में आना चाहिए ताकि समाज को एक नई दिशा देकर उन्नति की गति तेज की जा सके। इसमें संदेह नही है की समाज के लोगों के पास समय की कमी है, समझ की कमी नही, अगर ये देश का निर्माण कर सकते है तो देश की बागडोर भी बडी कुशलता से सम्भाल सकते है। (अमरजीत सिंह, 2001)
 अध्ययन की परिमियत्ता
इस अध्ययन मे सार्थक किये गए कारकों का भविष्य मे आपसी संबन्ध निकाल कर प्रभाषित किया जा सकता हैं अतः भविष्य मे इन कारणों पर आकडों का fo’ysÔ.k करके सामाजिक व पारिवारिक समस्याओं का समाधान, सामाजिक दृष्टिकोण मे परिवर्तन, तथा नेतृत्व गुणों के विकास से संबन्धित अध्ययन किया जा सकता है। भविष्य मे और बडे सैम्पल मे विभिन्न उपकल्पनाओं के साथ अन्य क्षेत्रों को भी इसमे सम्मलित करके अध्ययन किया जा सकता है
 सदंर्भ-
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