बुधवार, 16 अप्रैल 2008

सामाजिक न्याय के लिए ज़्यादा सुसंगत-सुदृढ़ प्रतिनिधियों की जरूरत

किसी भी देश की सबसे बड़ी पूंजी या संसाधन वहां के लोग होते हैं। इसीलिए मानव संसाधन का सर्वागीण विकास किसी भी देश के विकास की प्रक्रिया का सबसे महत्वपूर्ण घटक माना जाता है और शिक्षा के विभिन्न औपचारिक-अनौपचारिक रूप इस प्रक्रिया का मूल आधार होते हैं। ये आधार जितने सुदृढ़, जितने परिपूर्ण और जितने समसामयिक होते हैं, व्यक्ति या मानव संसाधन का विकास भी उतना ही सर्वागीण होता है।
नॉलेज इकॉनॉमी में शिक्षा का महत्व चमत्कारिक रूप से बढ़ा है। आईटी से लेकर मैनेजमेंट और हॉस्पिटालिटी से लेकर डिजाइनिंग, एनिमेशन और ऐसे ही तमाम स्ट्रीम की अच्छी पढ़ाई करने वाले आज सबसे तेजी से अमीर बन रहे हैं। इस रेस में पिछड़े युवा तेजी से पिछड़ रहे हैं। उत्तर प्रदेश के नोएडा और हरियाणा के गुड़गांव के हरियाणा में आपको पढ़े लिखे लोगों की समृद्धि और जमीन बेचकर करोड़ों कमाने वालों की लाइफस्टाइल का फर्क साफ नजर आएगा। ऐसे भी वाकए हैं जब जमीन बेचकर लाखों रुपए कमाने वाला कोई शख्स किसी एक्जिक्यूटिव की कार चला रहा है। अगली पीढ़ी तक ये फासला और बढ़ेगा।

इसी को ध्यान में रखते हुए भारतीय लोकतंत्र का आदर्श स्वतंत्रता, समानता और बन्धुत्व पर आधारित सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था की स्थापना है। लोकतांत्रिक भारत में इस आधार पर किसी को प्रतिष्ठा और अवसर की समानता से वंचित नहीं किया जा सकता कि वह आपसे कम योग्य है। यदि कोई फिलहाल आपसे कम योग्य है तो उसकी संभावना का विकास कीजिए और उसे अपने बराबर की प्रतिष्ठा और अवसर दीजिए ताकि वह आपसे स्वस्थ प्रतियोगिता कर सकने में सक्षम बन सके। “प्रत्येक जीव अव्यक्त ब्रह्म है।” हर मानव में विकास करने की असीम संभावना छिपी होती है, उस संभावना का पता लगाइए और उसका विकास करने का अवसर और माहौल दीजिए। भारतीय संविधान में दलित और पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण का प्रावधान इसीलिए किया गया है।
इसी आधार पर 20 जनवरी, 2006 को अधिनियमित 93वें संविधान संशोधन अधिनियम के द्वारा अंत:स्थापित अनुच्छेद 15(5) के अनुसार, “इस अनुच्छेद या अनुच्छेद 19 के खंड (1) के उप-खंड (छ) की कोई बात राज्य को सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े हुए नागरिकों के किन्हीं वर्गों की उन्नति के लिए या अनुसूचित जातियों या अनुसूचित जनजातियों के लिए विधि द्वारा कोई विशेष उपबंध करने से निवारित नहीं करेगी, जहाँ तक ऐसे विशेष उपबंध, अनुच्छेद 30 के खंड (1) में उल्लिखित अल्पसंख्यक शैक्षिक संस्थानों को छोड़कर, निजी शैक्षिक संस्थानों सहित शैक्षिक संस्थानों, चाहे वे राज्य से सहायता प्राप्त हों या गैर-सहायता प्राप्त हों, में प्रवेश से संबंधित हों।”
पिछड़े वर्गों को परिभाषित करने का सिलसिला वर्ष 1921 में माइसोस्ट्रेट में शुरू हुआ था कालेलकर की रिपोर्ट जब आई तो लोग चाहते थे कि आरक्षण के लिए जाति के आधार लिए जाने चाहिए. 1955 से लेकर 1978 तक मामला इसी बात पर रूका रहा कि हमें जाति के आधार पर हमें आरक्षण देना चाहिए या नहीं। रजनी कोठारी ने कहा था कि हमारे समाज में जाति के विरोध की राजनीति तो हो सकती है, लेकिन जाति बग़ैर नहीं. और ऐसी राजनीति का निशान इसलिए नहीं है कि हमारे समाज में जाति का ठप्पा हर चीज़ पर है
संविधान के अनुच्छेद 15-16 में क्रीमी लेयर का प्रावधान नहीं है। वर्ष 1992 में इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार के फैसले में क्रीमी लेयर की बात कही गई थी। इसके बाद नौकरियों में क्रीमी लेयर को लागू कर दिया गया और अब शिक्षण संस्थाओं में इसको लेकर कुछ भी नहीं हुआ। सरकार ने जिन लोगों को फायेदा दिया है उसमें कमज़ोर तबका इसका लाभ ले नही पायेगा क्यूंकि केवल आरक्षण मिलने भर से जो इन बड़े बड़े संस्थानों के खर्चे हैं वो कम नही होंगे और उन गरीब घरों के बच्चे जो कक्षा 10 से आगे बढ़ने के बारे में सोचते ही नही और सोचते भी हैं तो उन्हें सुविधाएं या कहें कि पैसे ही नही मिलते कि अच्छी जगह जाकर पढाई कर सकें और मोटी मोटी फीस का बोझ उठा सकें। हाँ जो लोग उठा सकते हैं उन्हें इसमें शामिल नही किया गए क्यूंकि वो इतने साधन संपन्न हैं कि उन्हें किसी आरक्षण की ज़रूरत नही है। यानी वो क्रेमी layer में आते हैं। अब सवाल ये उठता है कि ये आरक्षण है तो किसके लिए?
अन्य पिछड़े वर्ग के लोग शायद ही आरक्षण का लाभ उठा पाएँ, क्योंकि समाज और सत्ता में पहले से प्रभावी ऊँची जाति के लोग पिछड़ी जाति के व्यक्तियों को अपेक्षित ओबीसी प्रमाण पत्र ही जारी नहीं होने देंगे। पूरे देश भर में राजस्व अधिकारियों द्वारा ओबीसी प्रमाण पत्र जारी किए जाने की प्रक्रिया में जो भ्रष्टाचार और लालफीताशाही है उसको देखते हुए आय प्रमाण पत्र को आरक्षण का आधार बनाया जाना न्यायोचित भी नहीं है। दूसरी बात यह कि आरक्षण का मूल प्रयोजन पिछड़े वर्गों के शैक्षिक पिछड़ेपन को दूर करना और सत्ता में उनकी भागीदारी को जनसंख्या में उनके अनुपात के स्तर तक बढ़ाना है, ताकि उन्हें संविधान में घोषित प्रतिष्ठा और अवसर की समानता हासिल हो सके। हमारे समाज में प्रतिष्ठा और अवसर की समानता शिक्षा और सत्ता के स्तर के आधार पर तय होती है, न कि आर्थिक आधार पर।

शायद इसी लिए विंध्याचल से दक्षिण के लगभग हर पिछड़ा नेता ने स्कूल कॉलेज से लेकर यूनिवर्सिटी खोलने में दिलचस्पी ली थी और ये सिलसिला अब भी जारी है। लेकिन उत्तर भारत के ज्यादातर पिछड़ा नेता अपने आचरण में शिक्षा विरोधी साबित हुए हैं। उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, आदि राज्यों के अच्छे शिक्षा संस्थान पिछड़ा उभार के इसी दौर में बर्बाद हो गए। इन नेताओं से नए शिक्षा संस्थान बनाने और चलाने की तो आप कल्पना भी नहीं कर सकते। शिक्षा को लेकर उत्तर भारत के पिछड़े नेताओं में एक अजीब सी वितृष्णा आपको साफ नजर आएगी।

1960 के दशक से चली आ रही उत्तर भारत की सबसे मजबूत और प्रभावशाली राजनीतिक धारा के अस्त होने का समय आ गया है। ये धारा समाजवाद, लोहियावाद और कांग्रेस विरोध से शुरू होकर अब आरजेडी, समाजवादी पार्टी, इंडियन नेशनल लोकदल, समता पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, लोक जन शक्ति पार्टी आदि समूहों में खंड खंड हो चुकी है। गैर-कांग्रेसवाद का अंत वैसे ही हो चुका है। टुकड़े टुकड़े में बंट जाना इस राजनीति के अंत का कारण नहीं है। पिछड़ा राजनीति शुरुआत से ही खंड-खंड ही रही है। बुरी बात ये है कि पिछड़ावाद अब अपनी सकारात्मक ऊर्जा यानी समाज और राजनीति को अच्छे के लिए बदलने की क्षमता लगभग खो चुका है। पिछड़ा राजनीति के पतन में दोष किसका है, इसका हिसाब इतिहास लेखक जरूर करेंगे। लेकिन इस मामले में सारा दोष क्या व्यक्तियों का है ? उत्तर भारत के पिछड़े नेता इस मामले में अपने पाप से मुक्त नहीं हो सकते हैं, लेकिन राजनीति की इस महत्वपूर्ण धारा के अन्त के लिए सामाजिक-आर्थिक स्थितियां भी जिम्मेदार हैं।

दरअसल जिसे हम पिछड़ा या गैर-द्विज राजनीति मानते या कहते हैं, वो तमाम पिछड़ी जातियों को समेटने वाली धारा कभी नहीं रही है। खासकर इस राजनीति का नेतृत्व हमेशा ही पिछड़ों में से अगड़ी जातियों ने किया है। कर्पूरी ठाकुर जैसे चंद प्रतीकात्मक अपवादों को छोड़ दें तो इस राजनीति के शिखर पर आपको हमेशा कोई यादव, कोई कुर्मी या कोयरी, कोई जाट, कोई लोध ही नजर आएगा। दरअसल पिछड़ा राजनीति एक ऐसी धारा है जिसका जन्म इसलिए हुआ क्योंकि आजादी के बात पिछड़ी जातियों को राजनीतिक सत्ता में हिस्सेदारी नहीं मिल पा रही थी। अब जबकि इन जातियों के राजनीतिक सशक्तिकरण का काम लगभग पूरा हो चुका है, तो इन जातियों में मौजूदा शक्ति संतुलन को बदलने की न ऊर्जा है, न इच्छा और न ही जरूरत। इस मामले में पिछड़ा राजनीति अब यथास्थिति की समर्थक ताकत है।
सामाजिक न्याय-अभियान को आगे बढ़ाने के उनके नारे ‘खाली कारतूस’ साबित हुए. कईयों पर भ्रष्टाचार और परिवारवाद के गंभीर आरोप लगे. कइयों की शासकीय दृष्टिहीनता ने उनका करिश्मा ख़त्म कर दिया और विचारवान माने गए कुछेक मंडलवादी नेता सामाजिक न्याय का सुदृढ़ीकरण करने की बजाय भाजपा की ‘रामनामी गोद’ में जा बैठे.पर इससे यह निष्कर्ष निकालना गलत होगा कि दलित या पिछड़े वर्ग के प्रतिनिधियों की यही नियति है या कि सिर्फ़ सवर्ण-संभ्रांत समाज के प्रतिनिधि ही देश को सही दिशा दे सकते हैं.सामाजिक न्याय के इन स्वघोषित दूतों के वैचारिक-स्खलन से सिर्फ़ एक बात साफ हुई है कि भारतीय समाज में सामाजिक की विचारधारात्मक लड़ाई के लिए ज़्यादा सुसंगत-सुदृढ़ प्रतिनिधियों की जरूरत है.कई तरह की शक्तियाँ इस दिशा में सक्रिए हैं. कुछ सत्ता राजनीति का हिस्सा हैं तो कुछ ‘बदलाव की राजनीति’ को अपना एजेंडा मानती हैं. बेहतर विकल्प की तलाश करते भारतीय समाज को आर्थिक-प्रगति, सामाजिक न्याय और सुसंगत विकास का रास्ता कौन दिखाएगा इस बारे में भविष्यवाणी करना कठिन है.
सामाजिक न्याय के इन स्वघोषित दूतों के वैचारिक-स्खलन से सिर्फ़ एक बात साफ हुई है कि भारतीय समाज में सामाजिक न्याय की विचारधारात्मक लड़ाई के लिए ज़्यादा सुसंगत-सुदृढ़ प्रतिनिधियों की जरूरत है .कई तरह की शक्तियाँ इस दिशा में सक्रिए हैं. कुछ सत्ता राजनीति का हिस्सा हैं तो कुछ ‘बदलाव की राजनीति’ को अपना एजेंडा मानती हैं. बेहतर विकल्प की तलाश करते भारतीय समाज को आर्थिक-प्रगति, सामाजिक न्याय और सुसंगत विकास का रास्ता कौन दिखाएगा इस बारे में भविष्यवाणी करना कठिन है.पर इससे यह निष्कर्ष निकालना गलत होगा कि दलित या पिछड़े वर्ग के प्रतिनिधियों की यही नियति है या कि सिर्फ़ सवर्ण-संभ्रांत समाज के प्रतिनिधि ही देश को सही दिशा दे सकते हैं.



प्रदीप गोल्याण, Date:- 16. Apr 2008
विश्लेषक एवं लेखक
E-mail: pkdhim@gmail.com
Contact No.- 09315821807

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